(चन्द्रनखा के सन्दर्भ में ): चरित्र का सम्बन्ध स्वबोध पर आधारित
प्रायः यह कहा जाता है, पढ़ने में आता है, या देखा भी जाता है कि मनुष्य के वातावरण का उस पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है। यह भी कहा जाता है कि 50 प्रतिशत गुण-दोष व्यक्ति में वंशानुगत होते हैं तथा प्रारम्भ में जो संस्कार उसको मिले वे आखिरी तक उस पर अपना प्रभाव बनाये रखते हैं। ये सब कथन काफी हद तक सही भी हैं। लेकिन जब हम रामकाव्य के पात्रों के जीवन को देखते हैं तो एक बात साफ उभरकर आती है कि कितना ही उपरोक्त कथन सही हो लेकिन जब व्यक्ति का स्वबोध जाग्रत होता है तो उपरोक्त सब बाते पीछे धरी रह जाती है और स्वबोध प्राप्त व्यक्ति अपनी नयी राह बनाकर आगे चल पडता है। इसके विपरीत स्वबोध के अभाव में व्यक्ति अपने विकास को अवरुद्ध कर पतन की ओर मुड़ जाता है। रामकथा के पात्रों के माध्यम से इस तथ्य को बहुत स्पष्टरूप से समझा जा सकता है। इक्ष्वाकुवंश में बाहुबलि व राम, वानरवंश में बालि, तथा राक्षसवंश में विभीषण, ये ऐसे ही स्वबोध को प्राप्त विशिष्ट चरित्र हैं जो स्वबोध के कारण अपने वातावरण से दूर विशिष्ट मार्ग पर चल पडे़ हैं। इसके विपरीत जिनको स्वबोध नहीं हो पाता वे किस तरह पतन की ओर मुड़ जाते हैं यह हम रावण की बहन चन्द्रनखा के माध्यम से उसके जीवन की एक घटना के आधार से देखने का प्रयास करते हैं।
एक दिन चन्द्रनखा का पुत्र शम्बूक चन्द्रहास खड्ग को सिद्ध करने की साधना करने हेतु गया। शम्बूक की साधना पूर्ण होने ही वाली थी कि उसके पूर्व ही वन भ्रमण करते हुए लक्ष्मण ने खेल ही खेल में शम्बूक का वंशस्थल आहत कर उसके खड्ग को प्राप्त कर लिया। उसके कुछ ही समय बाद चन्द्रनखा अपने पुत्र शम्बूक लिए खड्ग की प्राप्ति हो जाने का विचार कर प्रसन्न होती हुई उसके पास पहुँची। वहाँ पहुँचकर उसने पुत्र का मुकुट, कुण्डलों से सुशोभित सिर व छिन्न-भिन्न वंशस्थल देखा और धाड़ मारकर रोने लगी। तब उसने यह प्रतिज्ञा कर ली कि जिसने मेरे पुत्र को मारा है यदि मैंने उसके जीवन का अपहरण नहीं किया तो मैं अग्नि में प्रवेश कर लूंगी। फिर जैसे ही उसने पीछे मुड़कर देखा वैसे ही उसे पीछे राम व लक्ष्मण दिखाई दिये। लक्ष्मण के हाथ में तलवार देखने पर उसने यह जान लिया कि इस ही ने मेरे पुत्र की हत्या की है परन्तु उनको देखते ही उसका पुत्र शोक चला गया और वह काम से पीड़ित हो उठी। तब शीघ्र ही अपना सुन्दर कन्या रूप बनाकर उनके पास पहुँची और एक क्षण में धाड़़ मारकर रोने लगी।
उस ही वन में भ्रमण कर रहे राम ने चन्द्रनखा से उसके रोने का कारण पूछा। तब चन्द्रनखा ने कहा- हे राजन! मैं वन में दिशा भूल गयी हूँ। मेरे पुण्य से तुम मुझे मिल गये। यदि हमारे ऊपर तुम्हारा मन है तो दोनों में से एक मुझसे विवाह कर लें। राम व लक्ष्मण ने चन्द्रनखा के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इस पर पर उसने किलकारियाँ भरकर सैकड़ों ज्वालाएँ छोड़ीं। यह देखकर राम ने लक्ष्मण से कहा- हे लक्ष्मण! इस के चरित को देखो। उसके बाद चन्द्रनखा अपनी आँखें लाल कर, अपने ही नखों से अपने ही शरीर को विदारित कर घाड़़ मारती हुई अपने घर खरदूषण के पास पहुँची। वहाँ पहुँचकर रोती हुई उसने कहा- हे राजन! मेेरा जनप्रिय पुत्र शम्बुकुमार राम व लक्ष्मण के द्वारा मृत्यु को प्राप्त हो गया। राम व लक्ष्मण ने मुझे नखों से विदीर्ण किया है। फिर भी मैं किसी तरह उनसे बच गयी।
खरदूषण अपनी पत्नी चन्द्रनखा के मुख से राम व लक्ष्मण द्वारा पुत्र शम्बूक को आहत किया जाना तथा चन्द्रनखा के शील को कलंकित किया जानकर क्रोधित हुआ शीघ्र जाकर लक्ष्मण से युद्ध में भिड़ गया। उस यद्ध में खरदूषण मारा गया। उस युद्ध में ही खरदूषण का साथ देने आये रावण ने सीता का हरण किया। सीता के हरण के परिणाम स्वरूप लंकानगरी तहस नहस हुई और अन्त में रावण भी मारा गया।
चन्द्रनखा के जीवन से सम्बन्धित यह एक छोटा सा कथानक स्वबोध के अभाव में चन्द्रनखा के जीवन में घटित बहुत ही दर्द भरे परिणाम को बताता है। इसमें हमने देखा कि चन्द्रनखा यदि अपने पुत्र के शोक में ही स्थिर रहती और उस का पुत्र प्रेम कामासक्ति में परिवर्तन नहीं हुआ होता तो वह अपने पति को नहीं खोती। जितना और जिस तरह का क्रोध खरदूषण को चन्द्रनखा के शील को नष्ट हुआ जानकर उत्पन्न हुआ उस तरह का क्रोध पुत्र के मृत्यु को प्राप्त हुआ सुनकर नहीं होता। दुःख तो पुत्र की मृत्यु का भी कम नहीं था लेकिन उसमें खरदूषण की प्रतिक्रिया कुछ दूसरे की प्रकार की होती। वह पुत्र के शोक से अभिभूत हुआ लक्ष्मण-राम से मिलता और हो सकता है राम और लक्ष्मण उसके दुःख में शामिल होकर उससे क्षमायाचना कर उसके दुःख को हल्का करने का प्रयास करते। फिर खरदूषण का लक्ष्मण से युद्ध नहीं होता तो रावण वहाँ आता ही क्यों ? ना फिर सीता का हरण हो पाता और ना हीं चन्द्रनखा के स्वजनों का नाश। चन्द्रनखा इस प्रकार दीन-हीन दशा को प्राप्त नहीं होती। स्वबोध के अभाव में दुराचरण अंगीकार करने के फलस्वरूप ही चन्द्रनखा इस दशा को प्राप्त हुई। अतः चन्द्रनखा के जीवन से यह सिद्ध होता है कि चरित्र का सम्बन्ध स्वबोध पर आधारित है।
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