विशल्या: संयम व तप का फल
यहाँ विशल्या के पूर्वभव तथा वर्तमान भव के जीवन से संयम व तप के फल के महत्व को बताया गया है। यहाँ विशल्या के दोनों भवों के आधार पर हम यह देखेंगे कि संयम व तप का फल किस प्रकार मिलता है तथा संयम रहित जीवन क्या फल देता है ?
विशल्या अपने पूर्वभव में पुंडरीकिणी नगर के चक्रवर्ती राजा आनन्द की अनंगसरा नामक कन्या थी। अति सुन्दर होने के कारण वह पुर्णवसु विद्याधर के द्वारा हरण कर ले जाई गयी और मार्ग में वह पर्णलध्वी विद्या के सहारे हिंसक जानवरों से युक्त भयानक श्वापद नामक अटवी में उतर गयी। वहाँ उसने संयमपूर्वक अपना समय व्यतीत किया तथा चारों प्रकार का आहार त्याग कर संल्लेखना धारण कर ली। उसी समय एक विशाल अजगर ने अनंगसरा का आधा शरीर निगल लिया। तीर्थ वन्दना कर लौट रहे सौदास विद्याधर ने जब अजगर के मुख से आधा शरीर बाहर निकला हुआ देखा तो वहाँ आकर उसको बचाने के लिए उस अजगर के दो टुकड़े करने हेतु उद्यत हुआ। तभी उस अनंगसरा ने तपस्वियों की रक्षा के लिए प्राणवध अनुचित बताकर उस अजगर को मारने से रोका और निराहार तपश्चरण कर अंहिसापूर्वक उसने अजगर को अपना शरीर अर्पित कर दिया।
यह अनंगसरा ही अहिंसापूर्वक मरण के प्रभाव से कैकेयी के भाई द्रोण की पुत्री विशल्या हुई। सीता के स्वयंवर के अवसर पर ही द्रोण ने भी विशल्या को लक्ष्मण के लिए देने का संकल्प कर लिया था, किन्तु लक्ष्मण का राम के साथ वनवास में रहने के कारण उनका संकल्प पूरा नहीं हो सका। तब विशल्या ने अविवाहित रहकर ही संयम का पालन किया। यह उसके संयम का प्रभाव ही था कि उसका न्हवनजल लोगों की व्याधि का हरण करनेवाला था। विशल्या के सुगन्धित न्हवन जल से रावण की शक्ति से आहत हुए लक्ष्मण की पूरी देह को मल दिया गया तथा अन्य सभीे राजाओं को भी वह गंधजल बाँट दिया गया जिससे लक्ष्मण सहित राम की सेना फिर से नयी हो गई। इस अहिंसात्मक शक्ति के आगे रावण की अमोघ शक्ति भी नहीं ठहर सकी।
यहाँ हम लक्ष्मण व विशल्या के जीवन की तुलना कर सकते हैं कि संयमहीनता के कारण लक्ष्मण का जीवन निरन्तर दुःखों से भरा हुआ है और अन्त में जैन रामकाव्यकारों ने उनका नरक में जाना भी बताया है जबकि विशल्या का संयमपूर्ण जीवन दूसरों की व्याधि को हरनेवाला है।
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