राम और सीता के जीवन में प्रवृत्ति और निवृत्ति का स्वरूप
मनुष्य का सारा जीवन प्रवृत्ति और निवृत्ति का ही खेल है और यही कारण है कि सभी धर्म ग्रंथों में भी प्र्रवृत्ति और निवृत्ति का ही कथन है। राम और सीता के जीवन में निवृत्ति का स्वरूप कैसा था इसको समझने से पहले संक्षेप में प्रवृत्ति और निवृत्ति का अर्थ समझना आवश्यक है।
प्रवृत्ति - ज्ञाता के पाने या छोड़ने की इच्छा सहित चेष्टा का नाम प्रवृत्ति है। छोडने की इच्छा से प्रवृत्ति में भी निवृत्ति का अंश देखा जाता है।
निवृत्ति - बहिरंग विषय कषाय आदि रूप अभिलाषा को प्राप्त चित्त का त्याग करना निवृत्ति है। अर्थात् अभिलाषाओं का त्याग ही निवृत्ति है।
स्वयंभू कवि ने अपने द्वारा रचित पउमचरिउ काव्य में राम के प्रवृत्तिपूर्ण जीवन का ही उल्लेख किया है, स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने उस काव्य की आगे की 7 संधियाँ और लिखकर उस काव्य को राम के निवृत्तिपूर्ण जीवन के साथ समाप्त किया है। यदि हमें राम के जीवन में प्रवृत्ति और निवृत्ति को देखना है तो हमें सम्पूर्ण पउमचरिउ काव्य का अध्ययन करना होगा, जबकि सीता के प्रवृत्ति और निवृत्तिपरक जीवन को स्वयंभू द्वारा रचित काव्य में ही देखना सम्भव है। यहाँ दोनों का ही दोनों प्रकार का जीवन निम्न प्रकार से बताया जा रहा है -
राम का प्रवृत्तिपूर्ण जीवन - राम के प्रवृत्तिपूर्ण जीवन का पीछे लिखे गये राम के इसवह में विस्तार के साथ विवेचन किया गया है।उसमें बताया गया है कि राम की प्रवृत्ति उनके एक आदर्शपुत्र, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, गुणिजनों के प्रति उनके प्रेम, द्रोह भाव से रहित होने, दुःखियों के प्रति करुणावान होने, जिनदेव व गुरु के प्रति श्रृद्धावान होने में देखी गयी है। पत्नी के प्रति भी उनका इतना प्रेम दिखाया गया है कि वे उनको वनवास में भी अपने साथ रखते हैं और उनको विभिन्न क्रीड़ाओं से आनन्दित रखते हैं। रावण के द्वारा हरण करने पर वे उसे प्राप्त कर ही दम लेते हैं। किन्तु अचानक परिस्थिति बदल जाने पर सीता पर लोक के द्वारा अपवाद लगाया जाने पर अपने राजपद की मर्यादा, लोकभय आदि कारणों से सीता के प्रति राम की प्रवृत्ति परिवर्तित हो जाती है जिसके परिणाम स्वरूप सीता को निर्वासन का दुःख भोगना पडता है। निर्वासन की समाप्ति के बाद भी राम की अहंकारपूर्ण कलुषित प्रवृत्ति ही सीता को अग्निपरीक्षा हेतु विवश करती है। त्रिभुवन द्वारा रचित आगे के काव्य में राम का लक्ष्मण के प्रति अतिमोह का कथन और उसके बाद राम के निवृत्तिपूर्ण जीवन का निम्नरूप में कथन हुआ है।
राम का निवृत्तिपूर्ण जीवन - देवों के उद्बोधन से राम का मोह ढीला पड गया और उनकी आँखे खुली। वेे विचार करने लगे कि संसार में अणरण्य, दशरथ, भरत, सीतादेवी, हनुमान आदि धन्य हैं जिन्होंने अपना परलोक साधा, मैं ही एक ऐसा हूँ जो यौवन बीतने और लक्ष्मण जैसे भाई के मरने पर भी आत्मा के घात पर तुला हुआ हूँ। सुन्दर स्त्रियाँ, चमरांे सहित छत्र, बन्धु-बान्धव ये सब उपलब्ध हो सकते हैं परन्तु केवलज्ञान की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। यह सोचते हुए राम को बोध प्राप्त हो गया। तब शोक का परिहार कर राम ने लक्ष्मण का सरयू नदी के किनारे दाह संस्कार कर दिया। उसके पश्चात् उन्होंने लवण के पुत्र के सिर पर राजपट्ट बाँधकर सुव्रत मुनि के पास जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली।
राम ने दीक्षा ग्रहण कर बारह प्रकार का तप अंगीकार किया। छः उपवास करने के पश्चात् स्यंदनस्थली नगर के राजा प्रतिनन्दीश्वर ने राम को पारणा करवाया। पारणा कर राजा को अनेक व्रत प्रदान कर राम भ्रमण करते हुए कोटिशिला प्रदेश में पहुँचे और ध्यान में लीन हो गये। तभी सीतादेवी का आगामी भव का जीव स्वयंप्रभदेव राग के वशीभूत होकर मुनीन्द्र राम के पास उनको ध्यान से डिगाने हेतु आया। उसने नाना प्रकार से ध्यान में लीन राम को रिझाने का भरसक प्रयत्न किया किन्तु मुनिवर राम का मन नहीं डिगा। माघ माह के शुक्ल पक्ष में बारहवीं की रात के चैथे प्रहर में मुनीन्द्र राम ने चार घातिया कर्मों का नाश कर परम उज्ज्वल ज्ञान प्राप्त कर लिया। उसके बाद स्वयंप्रभ देव को संबोधन दिया- तुम राग को छोड़ो, जिनभगवान ने जिस मोक्ष का प्रतिपादन किया है वह विरक्त को ही होता है। सरागी व्यक्ति का कर्मबन्ध और भी पक्का होता है। अन्त में मुनीन्द्र राम ने निर्वाण प्राप्त कर लिया।
यह है राम का प्रवृत्ति व निवृत्तिपरक जीवन का दृश्य। उसमें स्वयंभू ने मात्र राम के प्रवृत्तिपूर्ण जीवन को ही दिखाया है, निवृत्तिपरक नहीं। निवृत्तिपरक जीवन का कथन स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने ही किया है। हो सकता है स्वयंभू को सीता का स्वयंप्रभ देव बताकर सीता को पुनः नीचे गिराना स्वयंभू को अच्छा नहीं लगा हो। खैर जो भी हो, निवृत्तिपरक और प्रवृत्तिपरक जीवन को राम के जीवन से समझना आसान है।
सीता का प्रवृत्तिपूर्ण जीवन - इससे पूर्व के इसवह में हमने सीता को उनके वनवासकान हरणकाल में विभिन्न प्रवृत्तियों सहित देखा। वहाँ आप पुनः देखें। वनवासकाल से लेकर अग्निपरीक्षा तक का जीवन उनका प्रवृत्तिपरक जीवन है। अग्निपरीक्षा के बाद का जीवन उनका निवृत्तिपरक जीवन रहा है। यही से सीता का मन परिवर्तित हो चुका । राम से क्षमा मांगने पर सीता ने कहा,- हे राम! आप व्यर्थ में विषाद न करें। मैं विषय-भोगों से ऊब चुकी हूँ। तभी सीताने सिर के केश उखाड़कर राम के समक्ष डाल दिये और सर्वभूषण मुनि के पास दीक्षा धारण करली।
इस प्रकार राम और सीता दोनों के परष्पर आक्रोश तथा साथ ही परष्पर क्षमा भाव के साथ दोनों के प्रवृत्ति व निवृत्ति परक जीवन के माध्यम से निवृत्ति व प्रवृत्तिपरकता को आसानी से ह्नदयंगम किया जा सकता है।
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