वानरवंशी सुग्रीव का राम को सहयोग
हम सर्वप्रथम वंदन करते हैं, हमारे धर्माचार्यों एवं साधु सन्तो को, उसके बाद पुनः वंदन करते हैं ज्ञान के धनी विद्वानों को। धर्माचार्यों एवं विद्वानों ने ही निरन्तर साधना से ज्ञान अर्जित कर उस ज्ञान को सबके लिए समर्पित कर दिया। आज हम उस ज्ञान से किंचित मात्र भी कुछ ग्रहण कर सके हैं तो यह उनकी साधना का ही फल है। जैन रामकथा लिखने का श्रेय भी धर्माचार्यों व विद्वान को ही जाता है। प्राकृतभाषा में पउमचरियं की रचना आचार्य विमलसूरि द्वारा, संस्कृतभाषा में पद्मपुराण की रचना आचार्य रविषेण द्वारा तथा अपभ्रंशभाषा में पउमचरिउ की रचना विद्वान कवि स्वयंभू द्वारा की गयी है। इन तीनों रामकथाओं की कथावस्तु का आधार समान ही है मात्र भेद है तो एक गृहस्थ और मुनि की दृष्टि का। यही कारण है कि आचार्य रविषेण व आचार्य विमलसूरी की रामकथा बहुत कुछ साम्य रखती है जबकि स्वयंभू का पउमचरिउ पद्मपुराण के आधार से लिखा होने पर भी अभिव्यक्ति में पार्थक्य लिए हुए है। विमलसूरि रविषेण धर्माचार्य हैं तथा स्वयंभू एक गृहस्थ विद्वान हैं। धर्माचार्यों से विद्वानों ने सीखा और विद्वानों से हम सामान्यजन कुछ सीख पाते हैं। आगे हम स्वयंभू के पउमचरिउ में राम के सहयोगी सुग्रीव पर प्रकाश डालते हैं।
राजा सहस्रगति ने किंिष्कधानरेश सुग्रीव का मायावी रूप धारण कर किष्ंिकधानरेश सुग्रीव की पत्नी का अपहरण कर लिया। फलस्वरूप दोनों में युद्ध हुआ। तब मायावी सुग्रीव से पराजित होकर सुग्रीव राम की सहायता लेने गये। वहाँ पहुँचकर सुग्रीव ने जाम्बवन्त के मुख से रावण लक्ष्मण में से लक्ष्मण का चरित्र अच्छा होना जाना तथा लक्ष्मण को कोटिशिला को संचलित करते देखा। तब विवेकपूर्ण परीक्षा करके ही सुग्रीव ने अपना सारा दुःख राम को बताया। सुग्रीव का पूरा वृत्तान्त सुनकर राम ने भी उसको अपना पत्नीहरण का दुःख बताया। तब दोनों ने सात दिन के अन्दर एक दूसरे की पत्नी को ढूंढ निकालने की प्रतिज्ञा की। राम ने उस प्रतिज्ञा को सातवें दिन पूरा कर दिखाया किन्तु सुग्रीव राजभोगों में आसक्त होकर राम के साथ किये गये संकल्प व उपकार को भूल गये। तब राम ने लक्ष्मण को सुग्रीव के पास उसके द्वारा सीता को लाने हेतु किये गये संकल्प को याद दिलाने के लिए भेजा। लक्ष्मण की बात सुनकर सुग्रीव का हृदय विदीर्ण हो गया। वे उनके चरणों में गिर पडे़ और अपनी निन्दा कर क्षमायाचना की। उसके बाद सुग्रीव अपनी सेना लेकर सीता की खोज करने निकल पडे़। मार्ग में उन्हें रत्नकेशी से रावण द्वारा सीता का हरण किया जाने की जानकारी मिली।तब सुग्रीव उसे राम के पास ले आये। रत्नकेशी के मुख से सीता के विषय में जानकर राम रावण से सीता को प्राप्त करने की तैयारी में लग गये।
सर्वप्रथम सुग्रीव ने हनुमान को रावण के पक्ष से हटाकर राम के पक्ष में करने हेतु दूत को उसके पास यह कहकर भेजा कि ‘खरदूषण व शम्बूककुमार अपने खोटे आचरणों से मृत्यु को प्राप्त हुए हैं, इसमें राम व लक्ष्मण का दोष नहीं है। चन्द्रनखा के कुत्सित आचरण ने ही खरदूषण को मरवाया है।’ साथ ही कोटिशिला का उद्धार, माया सुग्रीव का मरण व राम को आठवां नारायण होने की बात भी हनुमान को बताने के लिए कहा। दूत ने वहाँ जाकर हनुमान को सुग्रीव द्वारा कहा हुआ सारा वृत्तान्त सुनाया। यह सब जानकर पुलकित बाहु हनुमान वहाँ से प्रस्थान कर राम के पास पहुँचे। इस प्रकार सुग्रीव के कारण ही हनुमान राम के पक्ष में हुए।
ससैन्य राम के वेलंधर नगर पहुँचते ही वहाँ के सेतु और समुद्र दो विद्याधर सामने आकर स्थित हो गये तथा उनको लंका के सम्मुख आगे बढ़ने से रोकने लगे। तब सुग्रीव ने राम को उन विद्याधरों का रावण का अनुचर होना तथा नल व नील को ही उनका प्रतिद्वन्द्वी होना बताया। यह सुनकर राम ने नल व नील को सेतु व समुद्र से लड़ने का आदेश दिया। शीघ्र्र ही नल ने समुद्र को व नील ने सेतु को पराजित कर राम के चरणों पर लाकर रख दिया। दोनों विद्याधरों ने राम की अधीनता स्वीकार कर ली। रावण के साथ युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व सुग्रीव ने ऐसा व्यूह बनाया कि उसमें सुराख भी न मिल सके। वह व्यूह सबके लिए अत्यन्त भयानक एवं दुष्प्रवेश्य था। उन्होंने चारों दिशाओं में सात-सात कुल 28द्वार बनाये। प्रत्येक द्वार पर राम के एक-एक प्रमुख योद्धा को नियुक्त किया। उसके बाद युद्ध में सुग्रीव ने राम की सेना के योद्धाओं को धराशायी होते देखा तो वे युद्धक्षेत्र में आकर रावण की सेना से भिड़ गये। सुग्रीव के द्वारा प्रतिबोधन अस्त्र छोड़ा जाने पर राम की सोयी हुई सेना जागकर पुनः शत्रु सेना के सम्मुख दौड़ने लगी। इस प्रकार सुग्रीव ने युद्ध में राम का पूरा सहयोग किया।
तदनन्तर राम लंका से सीता को प्राप्त कर अयोध्या लौटकर आये तब भामण्डल व विभीषण के साथ सुग्रीव ने राम का राज्याभिषेक किया। इस प्रकार जैसे राम ने सुग्रीव को उसकी पत्नी सुतारा को प्राप्त करवाया सुग्रीव ने भी राम को सीता की प्राप्ति में अपना पूरा सहयोग दिया। सुग्रीव जैसे विवेकी सहयोगी का राम को सीता की प्राप्ति कराने में अद्भुत् योेगदान रहा है।
यहाँ हमने देखा कि सहयोग की भावना तभी कामयाब होती है जब सहयोग लेनेवाला व सहयोग देनेवाला दोनों ही पक्ष समान स्तर पर प्रबल होते हैं। यदि प्रबल नहीं भी हो तो प्रबल बनाया भी जा सकता है, जैसे राम ने राजभोगों में आसक्त हुए सुग्रीव को जगाकर बनाया। सहयोग ही किसी भी काम की सिद्धि का आवश्यक तत्त्व है।
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