समर्पण कब, कहाँ और कैसे ? सीखे श्री हनुमानजी के जीवन से
मैं’ अहंकार की प्रबलता का द्योतक है, अहंकार जीवन के पतन का कारण है, समर्पण अहंकार के पतन का कारण है तथा अहंकार व समर्पण रहित जीवन निर्विकल्प शान्ति का कारण है। भरत चक्रवर्ती अहंकार के कारण चक्रवर्ती होकर भी अपने ही भाई बाहुबलि से पराजित हुए तथा उस भाई के आगे ही समर्पित होकर निर्विकल्प शान्ति प्राप्त की। बाहुबलि ने भरत के आगे समर्पण नहीं कर अपने ही भाई से युद्ध किया उसके बाद संसार सुखों को तुच्छ समझकर उनके प्रति समर्पित हो प्रव्रज्या ग्रहण कर निर्विकल्प शान्ति की प्राप्ति की। हनुमान ने अपने आपको राम के आगे समर्पित कर सुख की प्राप्ति की और अन्त में वैराग्य धारण कर निर्वाण प्राप्त किया। इन सब जीवन चरित्रों में हम अहंकार और समर्पण भाव को ही मुख्यरूप से देखते हैं। अतः अहंकार और समर्पण को अच्छी तरह समझना आवश्यक है।
‘मैं’ अपनों में सबसे श्रेष्ठ हूँ, ‘मैंने’ ही यह किया है, ‘मैं’ नहीं होता तो ऐसा नहीं हो सकता था, अमुक व्यक्ति मेरे अधीनस्थ रहे, आदि आदि अहंकार के द्योतक हैं उसी प्रकार स्वयं में सामथ्र्य की कमी होने के कारण तथा अनुचित कार्य के लिए किया गया समर्पण भी दासता /गुलामी का द्योतक है। समर्पण सद्भाव से सही जगह पर किया गया ही कार्यकारी होता है। ऐसा समर्पण करनेवाला ही आगे वैराग्य के मार्ग पर अग्रसर हो मोक्षगामी होता है। हनुमान का समर्पण सेसा ही निस्वार्थ भाव से सही जगह किया गया उच्चकोटि का समर्पण है जिसे हम उनके जीवन के कथन में देखने का प्रयास करते हैं।
हनुमान पवनंजय एवं अंजना के पुत्र थे। गर्भवती अंजना को उसकी सास केतूमति ने कलंक लगाकर घर से निकाल दिया। तब अंजना ने वन की पर्यकगुफा में इनको जन्म दिया। तभी आकाश मार्ग से जाते हुए हनुरूह द्वीप के राजा प्रतिसूर्य ने वहाँ आकर अंजना का समस्त वृत्तान्त जाना और अपने को अंजना का मामा होना बताकर अंजना व उसके पुत्र को विमान में अपने नगर ले जाने लगे। तभी मार्ग में वह बालक विमान से नीचे शिलातल पर गिर पड़ा, जिससे वह शिला चूर-चूर हो गई किन्तु वह बालक उस पर सुख से पड़ा रहा। प्रतिसूर्य राजा ने वहाँ से उसे लेकर और अपने नगर ले जाकर उसका जन्म-महोत्सव मनाया। तब वह बालक सुन्दर होने के कारण सुन्दर, उसके द्वारा शिलातल को चूर्ण किया जाने के कारण श्रीशैल तथा हनुरूहद्वीप में उसका लालन पालन होने के कारण हनुवन्त नाम से जाना गया।
रावण और वरुणविद्याधर के मध्य हुए युद्ध में हनुमान रावण के पक्ष में रहकर विद्याधरों से लड़ा तथा रावण को वरुण से मुक्त करवाकर वरुण को पकड़ लिया। तब हनुमान के पराक्रम से प्रसन्न होकर सुग्रीव ने अपनी कन्या पद्मरागा, खर ने अपनी कन्या अनंगकुसुम तथा नल व नील ने अपनी कन्या श्रीमालिनी हनुमान को दी।
सुग्रीव ने हनुमान को राम के पक्ष में करने के लिए हनुमान के पास दूत भेजा और अपना स्मरण करना बताया।दूत के मुख से हनुमान ने चन्द्रनखा का खोटा आचरण सुना तो वे लज्जित होकर मुख नीचा करके रह गये। पुनः जब लक्ष्मण द्वारा कोटिशिला को चलायमान किया जाना तथा राम द्वारा माया सुग्रीव का वध होना जाना तो गुणानुरागी हनुमान प्रसन्न हो उठे। दूत से सुग्रीव द्वारा स्मरण किया जानकर हनुमान ने ससैन्य सुग्रीव से मिलने के लिए उस ही समय प्रस्थान कर दिया। हनुमान किष्किन्धापुर में आकर राम से मिले तब राम ने कहा, पवनपुत्र के मिलने पर हमें त्रिलोक ही मिल गया। यह सुनकर सहज स्वभावी हनुमान ने कहा, आपके अनेकों सुभट प्रधानों में मेरी क्या गिनती? तब भी आदेश दीजिए युद्ध में किसके अहंकार को नष्ट कर लोक में आपके यश का डंका बजाऊँ। तभी जाम्बवन्त ने हनुमान को सीता की खोज कर राम का मनोरथ पूरा करने के लिए कहा।हनुमान राम का सन्देश व अँगूठी लेकर सीता की खोज के लिए चल पडे़। इस प्रकार हनुमान जो पहले रावण के सद्गुणों के प्रति समर्पित था वहीं हनुमान अब रावण को चरित्रहीन होना जान राम के प्रति समर्पित हो गया।
उसके बाद सीता की खोज में निकले हनुमान ने अवलोकिनी विद्या से अपनी माँ अंजना को प्रसवकाल में राजा महेन्द्र द्वारा भीषण वन में छुड़वाया जाना सुना। यह सुनकर हनुमान क्रुद्ध होकर महेन्द्रराज से युद्ध में भिड़ गये। युद्ध में महेन्द्रराज का मानमर्दन करने के पश्चात् विनयवान हनुमान ने अपने को उनका नाती बताकर उनसे क्षमायाचना कर ली। हनुमान ने वन में अंगारक द्वारा लगाई गई आग को अपनी विद्या से शान्त कर कन्याओं व मुनियों की रक्षा की।
उसके बाद हनुमान ने लंकानगरी में प्रवेश करके लंका की रक्षा में नियुक्त आशााली विद्या को परास्त किया। वज्रायुध को युद्ध में मार गिराया तभी वज्रायुध की पत्नी लंकासुन्दरी ने आकर हनुमान को युद्ध करने के लिए ललकारा। लंकासुन्दरी ने हनुमान पर तीरों के साथ अनेक आयुध छोडे़। वे सभी तीर हनुमान के ऊपर असफल हो गये जिससे पराक्रमी हनुमान युद्ध में अजेय हो गया। युद्ध में हनुमान के अजेय होने पर लंकासुन्दरी हनुमान पर आसक्त हो गई। उसने हनुमान से पाणिग्रहण करने के भाव से एक तीर पर अपना नाम अंकित कर उसके पास भेजा। लंकासुन्दरी के अक्षरों को देखकर सहृदयी हनुमान का हृदय व्याकुल हो उठा तथा प्रत्युत्तर में स्नेह प्रकट करने हेतु तीर पर अपना नाम लिखकर लंकासुन्दरी के पास भेजा। बाण देखकर परस्पर आसक्त हो दोनों ने वहीं विवाह कर लिया।
लंका में प्रवेश कर हनुमान ने लंका के उद्यान के अनेक वृक्षों को तहस-नहस कर चारों दिशाओं के चारों उद्यानपालों को मार गिराया। लंका में सीता के मन में हनुमान के प्रति सन्देह होने पर हनुमान ने रामके वनवास से लेकर लंकासुन्दरी को अपने वश में करने तक की समस्त घटना सीता को बताई और अपने आपको राम के दूत के रूप में सीता को पूरी तरह आश्वस्त किया तथा अचिरा के द्वारा विभीषण के घर से तथा इरा के द्वारा लंकासुन्दरी के घर से भोजन मँगवाकर 21 दिन से भूखी सीता को भोजन करवाया। तब हनुमान ने विभीषण को रावण द्वारा सीता का हरण किया जाने की सूचना दी। यह जानकर विभीषण ने रावण के कामासक्ति से विरत नहीं होने पर स्वयं का राम के पक्ष में मिलने हेतु कहा। रावण द्वारा निष्काषित विभीषण राम से आकर मिले तब हनुमान ने विभीषण को सज्जन, विनीत, सत्यवादी व जिनधर्मवत्सल बताकर उनके प्रति राम को आश्वस्त किया। उसके बाद हनुमान ने रावण को परस्त्री भोग के दुःखद परिणाम बताकर तथा जैनधर्म की मूल 12 अनुप्रेक्षाओं एवं 10 धर्म का हृदयस्पर्शी कथन कर राम के लिए सीता को सौंपने हेतु समझाने का अन्तिम प्रयास किया। हनुमान का यह मर्मज्ञ कथन रावण के मन में गड़ गया। तब वह परद्रव्य व परस्त्री में किसी भी तरह का सुख नहीं होना विचारकर सीता को राम के लिए सौंप देने का विचार करने लगा।
राम व रावण की सेनाओं के मध्य चल रहे भीषण युद्ध में राम की सेना को नष्ट होती देख हनुमान ने सुग्रीव को राम व लक्ष्मण के पास भिजवाया तथा स्वयं शत्रुसेना से युद्ध में भिड़ गये। हनुमान ने युद्ध में वज्रोदर व मालि को मार गिराया। युद्ध में रावण की शक्ति द्वारा लक्ष्मण के आहत होने पर हनुमान ने सूर्योदय से पूर्व औषधि के रूप में विशल्या का गंधजल लाकर लक्ष्मण को जीवन दान दिया।
राम ने रावण से युद्ध कर सीता को पुनः लोक अपवाद के कारण अपने राज्य से निष्काषित कर दिया। तब हनुमान ने सीता के साथ लंका में रही लंकासुंदरी को सीता के सतीत्व की पुष्टि करने हेतु बुलवाया। लंकासुंदरी ने वहाँ आकर सीत
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