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(विभीषण के सन्दर्भ में) : व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास के लिए गुणानुरागी होना आवश्यक


Sneh Jain

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व्यक्ति और समाज का परष्पर अटूट सम्बन्ध है। समाज के बिना व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है, तथा व्यक्तियों से मिलकर ही समाज का निर्माण होता है। इस तरह व्यक्ति समाज की एक इकाई है। इस प्रत्येक इकाई का अपना निजी महत्व है। मनुष्य के अकेले जन्म लेने और अकेले मरण को प्राप्त होने से व्यक्ति की व्यक्तिगत महत्ता का आकलन किया जा सकता है। संसार में भाँति भाँति के मनुष्य हैं, उन सबकी भिन्न- भिन्न विशेषताएँ हैं। अपने आसपास के वातावरण, संगति तथा अपनी बदलती शारीरिक अवस्था के प्रभाव से व्यक्ति का व्यक्तित्व भी निरन्तर परिवर्तनशील है। प्रत्येक व्यक्ति जीवन में सुख शान्ति चाहता है, किन्तु उसका अज्ञान अज्ञानजनित भय उसके विकास में अवरोध बन जाता है। इस अज्ञान भय के कारण वह गलत कार्य का विरोध नहीं कर पाता। फलतः उसका जीवन सुख-शान्ति से परे दुःखमय हो जाता है।  प्रत्येक व्यक्ति अपने सद्ज्ञान से ही सुख-शान्ति प्राप्त कर सकता है और सद्ज्ञान से ही व्यक्ति की सद्गुणों पर शृद्धा होती है तथा सद्गुण से ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास संभव है।

यहाँ हम रामकथा के प्रतिनायक रावण के छोटे भाई विभीषण के जीवन चरित्र के माध्यम से देखेंगे कि जब तक रावण गुणवान था तब तक विभीषण का रावण के प्रति पूर्ण सम्मानभाव ही नहीं बहुत प्रेम भाव था और उसके प्रति अत्यन्त गौरवान्वित था। यहाँ तक की रावण का जरा सा भी अहित हुआ जान विभीषण हर संभव उनकी रक्षा करने में तत्पर रहता था। उस ही विभीषण ने रावण के चरित्रहीन होने पर रावण को बहुत समझाया। बहुत समझाने पर भी नहीं समझने पर अपनी गुणानुराग प्रवृत्ति के कारण चरित्रहीन रावण का साथ छोड़ गुणवान राम के पक्ष में हो गया। अपने सभी सम्बन्धियों का विरोध सहकर विपक्षी से मिलना आसान नहीं होता, किन्तु यह उसकी गुणानुराग रूप एक अद्भुत आत्मशक्ति ही थी जिससे साहस पाकर वह ऐसा कर पाने में सफल हो सका। इस ही साहस के कारण उसने अन्त समय संन्यास धारण कर अपना जीवन कृतार्थ किया। आगे विभीषण के जीवन की घटनाओं के माध्यम से उसकी गुणानुरागता को निम्न रूप में दिखाया जा रहा है, जो सभी के लिए उपादेय है।      

विभीषण ने सागरबुद्धि भट्टारक से दशरथ के पुत्र राम लक्ष्मण द्वारा राजा जनक की कन्या सीता के कारण रावण का युद्ध में मारा जाना सुना, तो वह क्रोधित हो उठा और यह कहते हुए कि जब तक रावण तक मृत्यु नहीं पहुँचती तब तक मैं जनक और दशरथ का सिर तोड़ देता हूँ, उनको मारने के लिए चल पड़ा। दशरथ जनक को भी यह सूचना मिल चुकी थी, इससे उन्होंने अपनी लेपमयी मूर्तियाँ स्थापित करवा दी। विभीषण ने दशरथ जनक द्वारा निर्मित लेपमयी मूर्तियों का सिर उड़ाकर अपना काम पूरा होना जान लिया।

विभीषण अपने बडे़ भाई रावण का बहुत सम्मान करते थे और उनके प्रति गौरवान्वित थे। एक दिन माँ केकशी के द्वारा रावण सेे यह पूछा जाने पर कि तुम्हारे मौैसेरे भाई वैश्रवण ने अपने शत्रुओं से मिलकर अपनी लंकानगरी का अपहरण कर लिया है, हम पुनः कब इस लंकानगरी को प्राप्त कर सकेंगे? तभी रावण के प्रति आश्वस्त विभीषण ने कहा कि रावण के आगे वैश्रवण का क्या ? थोड़े ही दिनों में तुम यम,            स्कन्ध, कुबेर पुरन्दर, रवि, वरुण, पवन और चन्द्रमा आदि विद्याधरों को प्रतिदिन रावण के घर में सेवा करते हुए देखोगी।

विभीषण ने रावण द्वारा लंका में हरणकर लायी सीता के मुख से राम लक्ष्मण का जीवित होना जाना तो उसे सागरबुद्धि भट्टारक के कथनानुसार राम, लक्ष्मण के हाथों रावण की मृत्यु होने का समय आने पर विश्वास होने लगा। थोड़ी देर बाद ही उसने हनुमान से भी रावण द्वारा किये सीताहरण के विषय में जाना। तब विभीषण ने रावण को समझाने का भरपूर प्रयास किया। उसने कहा, उत्तम पुरुषों के लिए यह अच्छी बात नहीं, इससे तुम्हारा विनाश तो होगा ही और लोक द्वारा धिक्कारा जाकर लज्जित भी होओगे। रावण के नहीं मानने पर भी रावण की रक्षा के लिए चारों दिशाओं और नगर में आशाली विद्या घुमवाकर नगर को सुरक्षित करवा दिया। पुनः विभीषण ने रावण के चरित्र से डिगने पर उसकी तीव्र भत्र्सना की। उन्होंने कहा, कभी तुम तेजस्वी सूर्य थे परन्तु इस समय तुम एक टिमटिमाते जुगनू से अधिक महत्व नहीं रखते। जिसने पहाड़ के समान अपना चरित्र खण्डित कर लिया वह जीकर क्या करेगा।

विभीषण के द्वारा बार-बार समझाया जाने पर भी रावण के नहीं समझने पर उसने हनुमान को कहा - आपके ही समान मैंने भी उसे सौ बार समझाया तो भी महा आसक्त वह नहीं समझता। मैं जो कुछ भी कहता हूँ उसे वह विपरीत लेता है। यदि अब वह अपने आपको इस कर्म से विरत नहीं करेगा तो युद्ध प्रारम्भ होते ही मैं राम का सहायक बन जाऊँगा। इस प्रकार गुणानुरागी  विभीषण ने पापकर्म में आसक्त अपने ही भाई रावण को छोड़ने का निर्णय लिया और कुछ समय बाद ही राम की सेना में जाकर मिल गया। गुणानुरागी विभीषण ने राम के पास आकर कहा- आदरणीय राम! आप सुभटों में सिंह हैं, आपने बड़े-बडे़ युद्धों का निर्वाह किया है। जिस प्रकार परलोक में अरहन्तनाथ मेरे स्वामी हैं उसी तरह इस लोक के मेरे स्वामी आप हैं।

लंका में विभीषण के व्यवहार से आस्वस्त हुई सीता भी विभीषण के विषय में यही कहती है किदुर्जनों के बीच में यह सज्जन, नीम के बीच में यह चन्दन और संकट पड़ने पर साधर्मीजन वत्सल यह कौन है?

रावण की मृत्यु होने पर भी करुण विलाप करते हुए विभीषण राम को यही कहता है कि रावण ने अपयश से दुनियाँ को भर दिया, इसने तप नहीं किया, मोक्ष नहीं साधा, भगवान की चर्चा नहीं की, मद का निवारण नहीं किया और तिनके के समान अपने को तुच्छ बना लिया।

इतना ही नहीं विभीषण ने अयोध्या में भी सीता के सतीत्व की पुष्टि करने हेतु सीता के साथ लंका में रही त्रिजटा को बुलवाया। त्रिजटा ने वहाँ आकर सीता के सतीत्व की दृढ़ पुष्टि की। इसके बाद राम से स्वीकृति प्राप्त कर सुग्रीव आदि प्रमुखजनों के साथ विभीषण सीता को अयोध्या ले आये। इस प्रकार गुणानुरागी विभीषण ने सीता के प्रति भी अपना कत्र्तव्य पूरा किया।  अन्त में विभीषण ने अपनी गुणानुराग प्रवृत्ति के कारण ही राम के दीक्षा ग्रहण करने पर त्रिजटा के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली।

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