कैकेयी: संवेदना अर्थात् करुणा रहित मन एक अपयश भरा जीवन
इससे पूर्व हमने रामकथा के इक्ष्वाकुवंश के प्रमुख पात्रों के जीवन चरित्र को देखने का प्रयास किया तथा उसके माध्यम से मानव मन के विभिन्न आयाम भी हमारे समक्ष उभरकर आये। हमने उसमें मुख्य बात यह देखी कि मानव का मन विभिन्न भावों से पूरित तो है ही साथ ही निरन्तर परिवर्तनशील भी है। यह मन ही तो है जो अपनी मति को संचालित करता है, और फिर जैसी मनुष्य की गति होती है, वैसी ही उसकी मति होती है। इसीलिए संतों एवं धर्माचार्यों ने इन्द्रियों एवं मति को नियन्त्रण करने हेतु कहा है। इस ही कडी में पउमचरिउ के आधार पर हम राजा दशरथ की पत्नी कैकेयी के जीवन चरित्र से यह देखेंगे कि संवेदनाहीन कुशाग्र बुद्धि किसी तरह भी कार्यकारी नहीं हो सकती, संवेदना के साथ ही कुशाग्र बुद्धि की उपयोगिता है। विचार करते हैं ।
कैकेयी के द्वारा अपने स्वयंवर में आये हुए अनेक राजाओं में से इक्ष्वाकुवंशी दशरथ के गले में वरमाला डालने पर वहाँ उपस्थित हरिवाहन उसके विरुद्ध हो गया तथा दशरथ से युद्ध में भिड गया। तब रथ चलाने में कुशाग्र कैकेयी ने ही दशरथ के रथ का सारथि के रूप में कुशलता से संचालन किया। शत्रुसेना को जीत लेने के बाद दशरथ ने कैकेयी से विवाह कर लिया। रथ के कुशल संचालन से प्रभावित होकर दशरथ ने उससे कोई भी वरदान माँगने हेतु कहा। तब कुशाग्र्र मेघा कैकेयी ने तुरन्त कहा, हे देव! ठीक है, ‘आपने दे दिया’‘ अब समय आने पर मेरे माँगने पर देकर अपने सत्य का पालन करना।
दशरथ ने राम को राज्य देकर अपना प्रव्रज्या ग्रहण करन का निश्चय किया। तभी दशरथ का प्रव्रज्या ग्रहण करना एवं राम को राज्य दिया जाना जानकर कुशाग्रमेघा कैकेयी दशरथ के पास गयी। उसने दशरथ के पास धरोहर रूप में रखवाया वर अपने पुत्र भरत के लिए राज्य के रूप में माँग लिया। रागवश संवेदना से रहित हुई कैकेयी ने उस समय न अपने से बडी माँ सदृश कौशल्या का लिहाज किया न अपने से छोटी पुत्रवधू सीता का लिहाज किया। एक महिला होकर भी उसने यह विचार नहीं किया कि एक युवावस्था को प्राप्त महिला का वनमें रहना कितना कठिन होता है । उसी समय दशरथ ने राम को बुलाकर भरत के लिए राज्य अर्पित करने तथा भरत को बुलाकर राज्य लेने के लिए अनुरोध किया। राज्य लेने की बात सुनकर भरत ने दशरथ और कैकेयी दोनों को धिक्कारते हुए कहा कि मैं नहीं जानता था कि महिलाओं का ऐसा स्वभाव होता है कि वे यौवन के मद में पाप को भी नहीं गिनती और महामदान्ध तुम भी कुछ नहीं समझते, क्या राम को छोडकर मुझे राजपट्ट बाँधा जायेगा, कामान्ध का कैसा सत्य, सज्जन पुरुष भी चंचल चित्त होने से युक्त और अयुक्त का विचार नहीं करते।
जब अपने लिए वनवास अंगीकार कर राम ने वन की ओर प्रस्थान किया। राम के कुछ दूर चले जाने पर दुःखी हुए भरत राम को वापस लाने के लिए उनके पीछ-पीछे वन में गये। तभी कैकेयी मन में आशंकित हुई कि कहीं भरत के अनुरोध पर राम कहीं वापस नहीं लौट आवे, भरत के पीछे-पीछे गयी। वहाँ राम ने कैकेयी की शंका का विचार कर और उसका निवारण किया तथा उसके साथ भरत को अयोध्या भेज दिया।
हाँ, अन्त में वनवास में लक्ष्मण रावण की शक्ति से आहत होना सुनते ही कैकेयी रो पडीं और जैसे ही उसने भामण्डल से लक्ष्मण के जीवित होने के लिए विशल्या के स्नानजल के विषय में सुना तो वह शीघ्र ही भरत के साथ कौतुकमंगल नगर पहुँच गयीं। वहाँ उन्होंने अपने भाई द्रोणघन से लक्ष्मण को जीवित करने हेतु विशल्या सुन्दरी को तुरंत भेजने हेतु कहा। विशल्या के जल से ही लक्ष्मण स्वस्थ हुए। अन्त में पुत्र भरत के दीक्षा ग्रहण किये जाने पर कैकेयी ने भी सैकड़ांे युवतियों के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली।
इस प्रकार हमने कैकेयी के जीवन से समझा कि कैकेयी किस प्रकार पुत्र भरत के प्रति राग के कारण संवेदनहीन हुई और उस ही पुत्र भरत ने अपनी माँ को किस प्रकार धिक्कारा। हाँ बाद में अवश्य उसने लक्ष्मण के स्वरूथ होने में मदद की तथा अन्त में दीक्षा ग्रहण की। कैकेयी के राग ने कैकेयी को इतना अपयश से भर दिया कि कैकेयी का नाम सुनते ही उसके प्रति बुरा भाव उत्पन्न होता है तथा अपनी सन्तान का कैकेयी नाम रखना भी कोई पसन्द नहीं करता।
आशा है राग के दुष्परिणाम को समझने के लिए यह ब्लाग सभी के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगा।
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