रामकाव्य का उपसंहार
अब तक हमने जैन रामकथा के प्रमुख पात्रों के जीवन-कथन के माध्यम से रामकथा को समझने का प्रयास किया। पुनः इन रामकथा के पात्रों पर गहराई से विचार करे तो हम देखते हैं कि जैन रामकथाकारों का उद्देश्य रामकथा के माध्यम से जैनधर्म व जैन सिद्धान्तों की पुष्टि करना रहा है। जैनदर्शन के सभी अध्यात्मकारों ने संसार के प्राणियों के दुःख के मूल में राग को स्वीकार किया है। राग के ही इतर नाम है, आसक्ति, ममत्व, मुर्छा आदि। राग की चर्चा प्रायः सभी दर्शनकारों ने की है, चाहे वह पुराणकाव्य हो, या मुक्तक काव्य, कथाकाव्य, स्तुति, स्तोत्र, पूजा या धर्म काव्य की कोई भी विधा। जैनधर्म व दर्शन से सम्बन्धित कोई ऐसा ग्रंथ नहीं है जिसमें राग की चर्चा न हो। इतना कुछ होने के बाद भी राग के स्वरूप को आसानी से समझपाना बहुत कठिन प्रतीत होता है। यदि ऐसा नहीं होता और राग के स्वरूप को सब समझ चुके होते तो यह भी निश्चित है कि आज संसार सुखमय होता।
राम काव्य का अध्ययन करने के ऐसा लगा कि शायद रामकथाकारों को राम काव्य राग का स्पष्ट विवेचन करने के लिए अति उपयोगी प्रतीत हुआ होगा। मेरी भी इसमें पूरी सहमति है। मैं भी रामकाव्य के अध्ययन के पश्चात् इतना सा अवश्य अनुभव करने लगी हूँ प्रेम और राग के अन्तर को समझना बहुत आवश्यक है। प्रेम स्वर्ण के समान है तो राग काँच के समान, प्रेम स्वर्ण के समान तपकर निखरता है तो राग भोगों की ज्वाला में जलकर राख हो जाता है। प्रेम विवेकपूर्वक होता है और वात्सल्य में फलीभूत होता है, जबकि राग अज्ञानता पूर्वक लोभ से उत्पन्न हो शोक में फलीभूत होता है। अपभ्रंश भाषा में रचित पउमचरिउ (रामकथा) पर जब गहराई से विचार करते हैं तो कुछ मुख्य तथ्य उभरकर सामने आते हैं। उनमें सर्वप्रथम मुख्य तथ्य है कि स्वयंभू ने रामकथा में पद्मपुराण में वर्णित सम्पूर्ण कथा को अपने काव्य का विषय क्यों नहीं बनाया तथा उन्होंने सीता के संन्यास ग्रहण करने के साथ ही काव्य को विराम क्यों दे दिया ? दूसरा तथ्य है कि स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन को स्वयंभू का काव्य अधूरा क्यों प्रतीत हुआ जिससे उसने अपने पिता के काम को पूरा करने का बीड़ा उठाया। इन दोनों तथ्यों के विषय में मेरा स्वयं का जितना चिन्तन है, मैं यहाँ स्पष्ट करना चाहती हूँ। पाठकगण भी इस विषय में अपने विचार अभिव्यक्त कर सकते हैं।
उपरोक्त प्रथम तथ्य के विषय में मैं समझती हूँ कि हूँ कि अपभ्रंश भाषा का युग एक नयी चेतना लेकर आया था। अपभ्रंश भाषा में रचित नब्बे प्रतिशत साहित्य जैनधर्म के दिगम्बर सम्प्रदाय से सम्बन्धित है। इस युग में रचित जैन साहित्य झूठी धर्मांन्धता, संकीर्णता एवं कट्टर साम्प्रदायिकता से रहित था। अपभ्रंश युग के कवि यह भलीभाँति समझते थे कि सम्पूर्ण जीवन को विरक्तिमय बना देना प्रकृति का विरोध है और जिस धर्म ने ऐसा किया वह धाराशायी हुआ, परन्तु शृंगार में ही डूबकर गोते लगाते रहना भी जीवन का सब कुछ नहीं है। इसलिए अपभ्रंश कवियों ने शम या विरक्ति को जीवन का उद्देश्य मानते हुए प्रेय और श्रेय का अद्भुत् सम्मिश्रण किया है। अपभ्रंश कवि सदैव समभाव के पक्षधर रहे हैं। यही कारण नजर आता है कि अपभ्रंश कवि स्वयंभू ने सीता के संन्यास ग्रहण करने के साथ ही अपने काव्य को विराम दे दिया। स्वयंभू के लिए लिए सीता का संन्यास ग्रहण करना भी उतना ही महत्वपूर्ण था जितना कि राम का। सीता ने स्वयंवर में राम के गले में जब वरमाला डाली थी तब राम के साथ सुख भोगने के कितने अरमान उनके मन में रहे होंगे, और उसके बाद निर्वासन के समय सीता ने अपने पुत्र लवण व अंकुश का अपने घर व पति से दूर रहकर लालन-पालन किया उस समय भी सीता के मन में पुत्रों के प्रति कुछ अरमान अवश्य रहे होंगे। पुनः निर्वासन के बाद जब सीता राम से मिली तब राम का प्रथम दर्शन कर सीता ने यही विचार किया कि शायद अब मेरे दुःखों का अन्त हो गया है, किन्तु उसका परिणाम रहा अग्निपरीक्षा।
इतना दुःख भोग चुकने के बाद सीता को संसार से विरक्ति हुई और उसने संसार से विरक्त हो संन्यास ग्रहण कर लिया तो इसमें आश्चर्य क्या है ? और क्या यह संसार के राग के प्रति सच्ची विरक्ति नहीं है ? राम का या किसी के भी संन्यास का कारण संसार के दुःखों से भयभीत होना ही तो रहा है। सीता की इस वैराग्य की अनुभूति को स्वयंभू ने भी अवश्य अनुभूत किया है। स्वयंभू की स्वसंवेदन दृष्टि सीता के महत्व को नकारकर आगे नहीं बढ़ सकती थी। लोक भी ‘जय सीयाराम’ के उद्बोधन में पहले सीता को ही स्थान देता है। त्रिभुवन ने आगे की संधियों में भी राम- लक्ष्मण व सीता के राग की प्रवृत्ति का ही अंकन किया है। लक्ष्मण का राम की मृत्यु का समाचार सुनते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाना, राम का लक्ष्मण की मृत देह को भी कन्धे पर छः मास तक ढोते रहना, सीता के जीव इन्द्र का मुनि पदधारी राम को रिझाना ये सब राग दशा का ही तो चित्रण है। त्रिभुवन ने भी अपने पिता के कथन की ही पुष्टि की है।
इस प्रकार जैन रामकथाकारों ने संसार के दुःखों का मूल कारण राग को रामकथा के माध्यम से बहुत सुंदर रूप में प्रकट कर जन-जन के लिए राग से मुक्त हो सुख का मार्ग प्रशस्त किया है। रामकथा के माध्यम से स्पष्ट किया गया है कि दशरथ व कैकेयी का भरत के लिए राज्य मांगने मात्र एक राग ने अयोध्या से लेकर किष्किंधनगर होते हुए लंका तक तहलका मचा दिया। आज भी हम यही देखते हैं कि राग से उत्पन्न एक छोटी सी गलती के हम कितने भयानक परिणाम भोगते हैं। अतः राग को समाप्त कर वात्सल्य के साथ जीवन यापन करते हुए स्व एवं पर के लिए शान्ति का संदेश देनेवाला यह अपभ्रंश भाषा का यह प्रथम महा काव्य जो प्रथमानुयोग की कोटि में आता है, सदा जयवन्त रहे।
अपभ्रंश के प्रथम महाकाव्य ‘पउमचरिउ‘ का आज समापन हुआ। आगे आचार्य योगिन्दु जो अपभ्रंश की अध्यात्मधारा के प्रथम अध्यात्म ग्रंथकार है उनके द्वारा रचित परमात्मप्रकाश ग्रंथ को ब्लाग का विषय बनाया जायेगा। आशा ही नहीं पूरा विश्वास है आपको इसमें भी बहुत आनन्द आयेगा।
जय जिनेन्द्र।
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