पउमचरिउ काव्य में नारद की अद्भुत् भूमिका
पउमचरिउ नामक काव्य के ये एक महत्वपूर्ण पात्र हैं। देखा जाय तो इनका पउमचरिउ में वर्णित किसी भी वंश से विशेषरूप से सम्बन्ध नहीं है और वैसे सभी के साथ सम्बन्ध है। भ्रमणशील प्रवृत्ति के कारण इनको अपने चारों तरफ की पूर्ण जानकारी भी रहती है। जो इनके साथ खुश है उसका ये पूरा साथ देते हैं और उसका बिगड़ा काम भी बनाने में सहयोग प्रदान करते हैं किन्तु इनकी जिससे इनकी नाराजगी है उससे प्रतिशोध लिए बिना भी नहीं रहते। अपनी विस्तृत जानकारी के कारण ये अपने सभी कार्यों में सफल होते देखे गये है। यहाँ हम पउमचरिउ में नारद से सम्बन्धित प्राप्त कथानक के आधार पर हम देखेंगे कि किन-किन का उन्होंने सहयोग किया और किन-किन पात्रों के विरोधी रहे। पउमचरिउ काव्य में इनकी अद्भुत भूमिका रही है, जिसका निम्नरूप में कथन किया जा रहा है -
विद्याधरवंशी इन्द्र ने चित्रांग दूत को रावण के पास संधि करने का प्रस्ताव लेकर भेजा। चित्रांग दूत रावण के पास पहुँचे उससे पूर्व ही नारद रावण के पास पहुँच गये। उन्होंने इन्द्र का रहस्य बताकर उसे समझाया कि ‘अपने स्कन्धावार को सुरक्षित रखो, इन्द्र का दूत आयेगा तथा नरवरों और सुग्रीव आदि विद्याधरों में फूट डालेगा। उसके साथ मधुर वचनों में इस प्रकार बात करना जिससे संधि न हो, अभी तो इन्द्र शक्ति में तुमसे हीन है, बाद में उसको जीतना कठिन हो जायेगा।’ अन्त में नारद ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि मरुयज्ञ में जो तुमने विघ्नों से मेरी रक्षा की उसी उपकार के कारण मैंने यह परम रहस्य तुमको बताया है’ और वहाँ से प्रस्थान कर दिया। नारद के सहयोग से रावण ने इन्द्र पर विजय प्राप्त की।
एक दिन सीता दर्पण में प्रतिबिम्ब के रूप में पीछे खड़े मुनिवेष में नारद को देखकर भयभीत हो उठी। उसे भयभीत देखकर उसकी सखियों ने कोलाहल किया। इससे सीता के अनुचरों ने नारद को धक्के मारकर बाहर निकाल दिया। तभी अपने अपमान से दुःखी हो नारद प्रतिशोध की भावना से सीता का चित्र लिखकर ले गये और उसको भामण्डल को दिखाया। यह भामण्डल सीता का ही भाई था जो किसी देव के द्वारा अपहरण कर ले जाया गया था। देव के द्वारा उसे फैंक दिया जाने के कारण विद्याधर चन्द्रगति ने उसको वहाँ से उठाकर उसका लालन पालन किया। उस चित्र को देखकर भामंडल कामावस्था को प्राप्त हुआ। भामण्डल की यह अवस्था देखकर विद्याधर चन्द्रगति ने राजा जनक से भामंडल के लिए सीता की याचना की तथा सीता के लिए स्वयंवर रखने का प्रस्ताव रखा। उस स्वयंवर में राम विजयी हुए।
विभीषण ने सागरबुद्धि भट्टारक से यह भविष्यवाणी सुनी कि राजा जनक की पुत्री सीता के कारण दशरथ पुत्र राम एवं लक्ष्मण द्वारा रावण युद्ध में मारा जायेगा। यह सुनकर विभीषण भड़क उठा और दशरथ व जनक को मारने के लिए उद्यत हुआ। इससे पूर्व ही नारद ने जनक व दशरथ के पास पहुँचकर विभीषण का रहस्य बता दिया। उन्होंने कहा- आज विभीषण तुम्हारे ऊपर आयेगा और तुम दोनों के सिर तोड़ेगा। यह जानकर दशरथ व जनक अपनी लेपमयी मूर्तियाँ स्थापित करवाकर वहाँ से निकल गये। विभीषण के अनुचरों ने उन मूर्तियों का सिर उड़ाकर विभीषण को दिखाया जिससे जनक व दशरथ को मरा हुआ जान विभीषण सन्तुष्ट हुए। इस प्रकार नारद के कारण राजा जनक व दशरथ उस समय विभीषण से अपनी रक्षा करने में सफल हुए।
अयोध्या में राम के वियोग में दुःखी कौशल्या को नारद ने लंका में स्थित, राम-लक्ष्मण व सीता के कुशल होना बताकर शीघ्र ही उनसे मिलाने का आश्वासन दिया और तेज गति से वे लंकानगरी पहुँच गये। वहाँ राम से जाकर उन्होंने उनकी माँ का उनके वियोग में दुःखी होना बताया। माँ का दुःखी होना जानते ही राम ने विभीषण को कहा कि यदि मैंने आज या कल में माँ के दर्शन नहीं किये तो निश्चय से उनके प्राण निकल जायेंगे। अपनी माँ और जन्मभूमि स्वर्ग से भी अधिक प्यारी होती है। तब विभीषण के अनुरोध पर सौलहवें दिन उन्होंने अयोध्या के लिए प्रस्थान कर दिया। इस प्रकार नारद ने माँ-बेटे को मिलाने में सहयोग किया।
सीता के निर्वासन काल में राम से दूर अकेले सीता के साथ रह रहे लवण व अंकुश को उनके पिता राम से मिलवाने की भावना से नारद ने सीता हरण, सीता पर कलंक लगाकर अकारण निर्वासन दिया जाना तथा लवण व अंकुश के जन्म होने तक की समस्त घटनाओं को बताया। यह सुनकर लवण व अंकुश क्रोधित होकर राम व लक्ष्मण से युद्ध में भिड़ गये। वे परस्पर एक दूसरे के तीरों को निष्फल कर रहे थे। तभी नारद ने वहाँ आकर लवण व अंकुश को उनका ही पुत्र होना बताया। यह जानकर राम व लक्ष्मण ने युद्ध छोड़कर अपने हथियार डाल दिये और अपने पुत्रों का सिर चूम लिया। दोनों पुत्र भी पिता के चरणों में गिर पडे़। इस प्रकार नारद के सहयोग ये ही पिता व पुत्रों का मिलन हुआ।
स्वयंभू द्वारा रचित पउमचरिउ के कथानक से सम्बन्धित सभी मुख्य पात्रों के चित्रण के द्वारा हम मानव-जीवन की विभिन्न घटनाओं के कारण और परिणामों से परिचित हुए हैं। पउमचरिउ के आगे के भाग को स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने पूरा किया। स्वयंभू ने आचार्य रविषेण के पद्मपुराण के वही तक के अंश को अपने काव्य का विषय बनाया था जहाँ तक सीता ने संन्यास लिया था। लगता है त्रिभुवन को राम के संन्यास अंगीकार के अभाव में स्वयंभू का काम कुछ अधूरा प्रतीत हुआ और उसने राम के संन्यास का विधिवत कथन कर स्वयंभू के काम को पूरा किया।
आगे स्वयंभू पुत्र त्रिभुवन द्वारा रचित पउमचरिउ की अन्तिम सात संधियों के आधार पर तीन-चार ब्लाँग और दिये जायेंगे जिससे रामकथा से पूर्णरूप से परिचित हुआ जा सके। उसके बाद अपभ्रंश का प्रथम रोचक अध्यात्म ग्रंथ परमात्मप्रकाश को लिया जायेगा।
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