लक्ष्मण की राम के प्रति आसक्ति
जैनधर्म एवं दर्शन में समस्त दोषों का आधार आसक्ति के मूल में देखा गया है। आसक्ति अज्ञान जनित है। आसक्ति से उत्पन्न दुष्परिणामों को भुगतने पर ही सही ज्ञान का होना प्रारम्भ होता है। राम-लक्ष्मण व सीता के दुःखों के मूल में भी यही आसक्ति विद्यमान थी। पउमचरिउ के अन्त में भी इन पात्रों में विद्यमान आसक्ति के चरमरूप का कथन किया गया है जो प्रत्येक व्यक्ति की आसक्तियों को भी भली भाँति उदघाटित करती है। यहाँ सर्वप्रथम लक्ष्मण की राम के प्रति आसक्ति का कथन किया जा रहा है।
लक्ष्मण की राम के प्रति आसक्ति -
एक दिन सहस्त्रनयन इन्द्र अपने प्रमुख-प्रमुख देवों के साथ चर्चा करते हुए बोला कि लक्ष्मण का राम के प्रति इतना राग है कि एक भी क्षण वह राम के वियोग को नहीं सहन कर सकता। अपने प्राणों से भी अधिक वह उसको चाहता है। मैं इतना जानता हूँ कि राम की मृत्यु का नाम लेने मात्र से लक्ष्मण निश्चित रूप से जीवित नहीं रह सकेगा। इन्द्र को यह कहते सुनकर वहाँ स्थित रत्नचूड और अमृतचूलनामक देवों ने परष्पर विचारकर कहा कि चलो लक्ष्मण के पास चलकर यह कहते है कि राम मर गया, और देखते है कि यह सुनकर लक्ष्मण पर क्या प्रभाव पडता है ? यह कहकर दोनों ने वहाँ से प्रस्थान किया और अयोध्यानगरी पहुँच गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने मायामयी करुण शब्द किया ‘ हा रामचन्द्र मर गये’। यह शब्द जब लक्ष्मण ने सुना तो वह इनता ही कह पाया था कि ‘अरे राम के क्या हो गया , और वह इस प्रकार आधा ही बोल पाया था कि इन शब्दों के साथ उसके प्राण पखेरू उड़ गये। लक्ष्मण के मृत्यु का कारण लक्ष्मण की राम के प्रति आसक्ति को उद्घाटित करती है।
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