(रावणपुत्र इन्द्रजीत के सन्दर्भ में) अज्ञानी व्यक्ति की संगति हानिप्रद है चाहे वह पुत्र ही हो
हम सब भली भाँति समझते है कि मनुष्य जीवन में संगति और आस-पास के वातावरण का बहुत महत्व है। यह भी सच है कि मनुष्य की संगति और उसके वातावरण का सम्बन्ध उसके जन्म लेने से है, जिस पर कि उसका प्रत्यक्ष रूप से कोई अधिकार नहीं। जहाँ मनुष्य जन्म लेगा प्रारम्भ में वही स्थान उसका वातावरण होगा और वहाँ पर निवास करने वालों के साथ उसकी संगति होगी। यही कारण है कि बच्चे पर अधिकांश प्रभाव उसके माता-पिता, भाई- बहिन और यदि संयुक्त परिवार हो तो दादा-दादी और चाचा- चाची का होता है। कईं बार तो बच्चा जिसके सम्पर्क में ज्यादा आता है वह बिल्कुल उसकी अनुकृति ही प्रतीत होता है। क्रिया-कलाप व भावनाओं के स्तर पर वह उनसे बहुत मेल खाता है। आगे चलकर जैसे ही उसका मानसिक विकास होने लगता है, उसका ज्ञान विकसित होने से अपनी निजी क्षमता पल्लवित होने लगती है वैसे वैसे ही वह वह अपने वातावरण से पृथक रूप लने लगता है। यही कारण है कि प्रारम्भिक स्तर पर समान होते हुए भी सभी बचपन के सम्बन्ध आगे चलकर भिन्न-भिन्न रूपों में निजि वैशिष्टता को प्राप्त करते हैं।
यहाँ हम देखते है कि एक और राक्षसवंशी लंका सम्राट रावण का भाई विभीषण और दूसरी और रावण का पुत्र इन्द्रजीत। एक ही वातावरण में साथ साथ रहने पर भी अपने निजि ज्ञान के वैशिष्टय के कारण दोनों की मानसिकता में बहुत भेद है। यही कारण है कि विभीषण रावण को राम के लिए सीता को सौपने का आग्रह करता है जबकि इन्द्रजीत रावण सीता राम को लौटा दे इसके पक्ष में नहीं है। यह सही है कि व्यक्ति किसी दूसरे के सहयोग से ही आगे बढता है। जिस समय विभीषण रावण को राम के लिए सीता को सौपने हेतु अपनी विभिन्न युक्तियों से समझा रहा था उस समय यदि बीच में इन्द्रजीत का प्रवेश नहीं हुआ होता तो शायद रावण सीता को राम के लिए सौपने का निर्णय ले लेता और युद्ध नहीं होने से वह मृत्यु को भी प्राप्त नहीं होता और लोक में अपयश का पात्र भी नहीं बनता। मात्र इन्द्रजीत के प्रोत्साहन से रावण ने सीता का राम के लिए नहीं सौपकर युद्ध किया, युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हुआ तथा लोक में अपयश पाया। अब हम पउमचरिउ ग्रंथ के आधार पर हम यह देखते है कि रावण को राम के लिए सीता को नहीं लौटाने देने में इन्द्रजीत की क्या भूमिका थी ?
रावण पुत्र इन्द्रजीत बहुत ही पराक्रमी था। सीता हरण से पूर्व राक्षसवंश व विद्याधरवंश के मध्य हुए युद्ध में विद्याधरवंशी जयन्त ने राक्षसवंशी श्रीमालि को मार गिराया, तब अकेले इन्द्रजीत ने भीषण युद्ध कर जयवन्त पर विजय प्राप्त कर ली। सीता हरण के बाद विभीषण ने रावण को उसके वैभव व मान सम्मान को यथावत बना रहने देने तथा परस्त्री रमण के कुफल से बचाने हेतु सीता को राम के लिए सौंप देने का उचित अवसर बताया। तभी इन्द्रजीत ने विभीषण के कथन को अनुचित ठहराकर और अपने द्वारा पूर्व में किये गये साहसी कार्यों का स्मरण दिलाकर अपने आपको हनुमान से युद्ध करने में समर्थ बताया और हनुमान से युद्ध कर उसे नागपाश से बाँध लिया। इस प्रकार उसने रावण को अपने पक्ष में कर लिया।
पुनः हंसद्वीप में राम की सेना को आया जानकर विभीषण रावण को आगामी आपदाओं से अवगत करवाकर उसे समझाने का पूरा प्रयास कर रहा था। तभी इन्द्रजीत अपने मन में भड़क उठा और कहा- तुम्हारा कहा हुआ रावण के लिए किसी भी तरह प्रिय नहीं हो सकता। यदि सीता उसे सांैप दी गई तो मैं अपना इन्द्रजीत नाम छोड़ दूंगा। इस तरह उसने विभीषण द्वारा रावण को समझाने के प्रयास को विफल कर दिया। आगे जब राम, सुग्रीव, हनुमान आदि ने अंगद के साथ रावण के पास संधि करने का संदेश भिजवाया तो उस संदेश को सुनकर इन्द्रजीत ने कहा, यदि राम सीता में आसक्ति छोड़ दे तो ही संधि हो सकती है अन्यथा नहीं। इस प्रकार इन्द्रजीत रावण को राम के लिए सीता को नहीं सांैपने देने में रावण का पक्षधर रह रावण के लिए अहितकारी सिद्ध हुआ। अन्त में इन्द्रजीत ने रावण की मृत्यु होने पर संसार की अनित्यता को जानकर दीक्षा ग्रहण कर ली।
अतः संगति सदा विेवेकी की ही हितकारी है और अविवेकी की अनर्थकारी। आशा है इस इस से विवेकपूर्ण व्यक्तियों की संगति के महत्व को समझ सकेंगे।
0 Comments
Recommended Comments
There are no comments to display.