(हनुमान व लंकासुंदरी के सन्दर्भ में): समभाव से ही सौहार्द सम्भव है
इस अनादिनिधन संसार में सभी जीव दो स्तर पर जीवन यापन करते हैं- प्राकृतिक और अर्जित। प्रथम प्राकृतिक स्तर पर सभी जीव प्रायः समान स्थिति लिए होते हैं, जैसे - सभी जीवों का जन्म लेकर मरना, सभी के लिए बाल्य, युवा, वृद्धावस्था का समानरूप से होना, सभी स्त्री जाति व पुरुष जाति के जीवों की अपनी जाति के अनुसार शारीरिक संरचना समान होना, सूर्य, चन्द्रमा, नदी, तालाब वृक्ष आदि की सुविधाएँ सभी को समान रूप से मिलना। दूसरे अर्जित स्तर पर अर्जन करना प्रत्येक व्यक्ति की निजि सम्पदा है, जो सभी व्यक्तियों को एक दूसरे से पृथकता प्रदान करता है। यह अर्जित स्तर ही व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास का आधार है। जितना जितना व्यक्ति जिस-जिस क्षेत्र में अपने विवेक और पुरुषार्थ से जो कुछ अर्जित कर पाता है वही उसका विकास है।
व्यक्ति के उपरोक्त दो स्तरों के समान प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का संबन्ध भी उसके भाव व क्रिया से जुड़ा होता है। यहाँ भी भावों के स्तर पर प्रायः सब समान और सीमित होते हैं किन्तु क्रिया विभिन्नता और व्यापकता लिए होती है। जैसे - किसी समान प्रसंग को लेकर हँसना, समान प्रसंग उपस्थित होने पर क्रोधित होना, दीन-हीन व्यक्ति को देखकर समान करुणा का भाव उत्पन्न होना, किसी अद्भुत वस्तु को देखकर समानरूप से आश्चर्य का भाव उत्पन्न होना, किसी घृणित वस्तु को देखकर समानरूप से जुगुप्सा का भाव उत्पन्न होना, समान संबन्धों के मिलने-बिछुड़ने पर समानरूप से प्रेम व वियोग भाव उत्पन्न होना आदि आदि। हम देखते है कि भाव एक होता है किन्तु उसको अभिव्यक्त करने की क्रिया विभिन्नरूपों में होती है। अतः यह स्पष्ट है कि व्यक्तियों के भाव समान होते हैं तभी उनकी क्रिया समान हो पाती है। समभाव का जीवन में बहुत महत्व है। दो व्यक्ति परष्पर समान रूप से प्रेम करे तब ही वह सफल प्रेम के रूप में परिणत होता है। स्वयं में समभाव तथा पारष्परिक समभाव ही सुख-शान्ति प्राप्त होने का मूल मन्त्र है। हम यहाँ हनुमान व लंकासुंदरी के जीवन की घटना के माध्यम से सौहार्द की भावना को अनुभव करने का प्रयास करते हैं।
लंकासुंदरी लंकासम्राट रावण के अनुचर वज्रायुध की पुत्री है। पउमचरिउ काव्य में हनुमान व लंकासुंदरी का प्रसंग बहुत कम होने पर भी सहृदय लोगों को सौहार्द की अनुभूति कराने में सक्षम है। सौहार्द उत्पन्न होनें में अमीरी-गरीबी, ऊँचा-नीचा, छोटे-बडे़ का कोई स्थान नहीं है, उसमें तो मात्र भावों की समानता ही कारण है। समभाव से उत्पन्न सौहार्द के कारण ही लंकासुन्दरी ने रावण के अनुचर की पुत्री होते हुए भी रावण के विरोधी, हनुमान का साथ दिया और दोनों विवाहसूत्र में बँध गये। उसके बाद अयोध्या पहुँचकर राम के विरुद्ध सीता के सतीत्व का समर्थन किया। लंकासुंदरी से सम्बन्धित यह सुन्दर प्रसंग निम्न प्रकार है।
राम के लिए सीता की खोज में निकले हनुमान ने लंकानगरी में प्रवेश कर आशाली विद्या को युद्ध में परास्त कर रावण के अनुचर वज्रायुध को मार गिराया। तब लंकासुंदरी अपने पिता वज्रायुघ का बदला लेने हेतु हनुमान से युद्ध करने के लिए तत्पर हुई और युद्ध में हनुमान के विरुद्ध बराबर की भागीदारी की। उसके छोड़े गये तीरों के जाल से आकाश आच्छादित हो गया। लंकासुंदरी ने थर्राता हुआ अपना खुरपा फंैका जिससे हनुमान के धनुष की डोरी कट गई। तब हनुमान ने दूसरा धनुष लेकर उससे लंकासुंदरी को ढक दिया। लंकासुंदरी ने भी हनुमान के तीर समूह को काट दिया और उसका कवच भेद दिया। पुनः उस लंकासुंदरी ने हनुमान पर उल्का अस्त्र तथा गदा मारी जिसे हनुमान ने खंडित कर दिया।
हनुमान ने लंकासुंदरी को कन्या के निर्बल होने की संज्ञा दी तथा उसके साथ युद्ध करने के लिए मना कर वहाँ से हट जाने के लिए कहा। यह सुनकर लंकासुंदरी ने अपने तर्क से कन्या के पराक्रम को प्रतिष्ठित कर हनुमान को इस प्रकार की बात करने के लिए मूर्ख बताया। उसने कहा- क्या आग की चिनगारी पेड़ को नहीं जला देती? क्या विषद्रुम लता से आदमी नहीं मरता? क्या नर्वदा नदी के द्वारा विंध्याचल खंडित नहीं होता? क्या सिंहनी गज को नहीं मार देती? यदि तुम्हारे मन में इतना अभिमान है तो तुमने आशाली विद्या के साथ युद्ध क्यों किया?
हनुमान के युद्ध में अजेय होने पर लंकासुंदरी ने अपने मन में हनुमान के गुणों की सराहना की। उसने कहा- वीर हनुमान! साधु साधु। तुम्हारा शरीर और वक्ष विजयलक्ष्मी से अंकित है। हे अस्खलित मान! युद्ध में मैं तुमसे पराजित हुई, अच्छा हो यदि आप मुझसे पाणिग्रहण कर लें। तब उसने तीर पर अपना नाम अंकित कर हनुमान की तरफ छोड़ा। हनुमान ने भी उन अक्षरों को पढ़कर प्रत्युत्तर में अपना स्नेह प्रकट करने हेतु अपना नाम लिखकर बाण छोड़ा। तदनन्तर दोनों का विवाह हो गया। लंका में रह रही सीता के लिए गुणानुरागी लंकासुंदरी ने अपने घर से रुचिकर भोजन भेजा। अयोध्या जाकर लंकासुंदरी ने गर्वीले स्वर में सीता के सतीत्व की पुष्टि की।
इस प्रकार हनुमान व लंकासुंदरी में परष्पर सौहार्द उत्पन्न होने का कारण दोनों में बराबर का साहस, दोनों का बराबर का गुणानुरागी होना, दोनों में बराबर का प्रेम होना रहा है। यदि हम अपने जीवन में सौहार्द चाहते हैं तो हमें अपनी संगति का चयन समभाव को देख-परखकर ही करना चाहिए।
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