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(रावण के सन्दर्भ में) शीलाचार का महत्व


Sneh Jain

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अब तक हमने रामकथा के इक्ष्वाकुवंश एवं वानरवंश के पात्रों के माध्यम से रामकथा के संदेश को समझने की कोशिश की। अब राक्षसवंश के प्रमुख पात्र रावण के माध्यम से शीलाचार के महत्व को भी समझने का प्रयास करते हैं। जिस प्रकार रामकाव्य के नायक श्री राम का चरित्र मात्र सीता के परिप्रेक्ष में उनके राजगद्दी पर बैठने से पूर्व तथा राजगद्दी पर बैठने के बाद भिन्नता लिए हुए है वैसे ही रावण का चरित्र भी सीता हरण से पूर्व तथा सीता हरण के बाद का भिन्नता लिए हुए हैं। शीलपूर्वक आचरण को भलीभाँति सरलतापूर्वक समझने हेतु रावण के समस्त जीवन को दो भागों में विभक्त करते हैं। 1. सीताहरण से पूर्व 2. सीताहरण के बाद। इसके माध्यम से हम यह आकलन कर पायेंगे कि शीलाचरण का पालन करते हुए जो रावण एक पराक्रमी सम्राट, करुणावान, धर्मानुरागी, संयमी लोकप्रिय तथा अपनी गलती पर पश्चाताप करनेवाला था वही रावण परस्त्री में आसक्त होकर अपने शीलाचार का उल्लंघन कर विपरीतबुद्धि से दयनीय अवस्था एवं लोकभय से आक्रान्त होकर लोक में निन्दा को प्राप्त हुआ। आशा है यह लेख सभी को अपने व्यक्तित्व के परिष्कार में मार्गदर्शन देगा।

1. सीताहरण से पूर्व रावण 

जन्म से ही विशाल वक्षस्थल वाला वह रावण ऐसा लगता था जैसे स्वर्ग से कोई देव उतरकर आया हो। कभी गजों के दाँतों को उखाड़ता हुआ, कभी साँंप के मुखों को करतल से छूता हुआ वह बालक बाल्यकाल में अनेक क्रीड़ाएँ किया करता था। बाल्यावस्था में ही रावण ने खेलते हुए भंडार में प्रवेश कर राक्षसवंश के स्थापक तोयदवाहन के हार को लेकर अपने गले में पहन लिया। उसमें उसके दस मुख दिखाई दिये। तभी लोगों ने उसका नाम दसानन रखा। इस कारण यह दसानन के नाम से जाना जाने लगा। रावण ने एक हजार विद्याएँ सिद्ध की हुई जिससे रावण को विद्याधर भी कहा गया। रावण ने स्वयंप्रभ नामक नगर एवं सहस्रकूट चैत्यगृह बनाया तथा चन्द्रहास खड्ग सिद्ध की। रावण ने करुणापूर्वक 6000 गन्धर्व कुमारियों को सुरसुन्दर से मुक्त करवाया तथा यम द्वारा सुभटों को बन्दी बनाकर नरक के समान यातना दिये जाने पर रावण ने उनको मुक्त करवाया। विद्याधर वैश्रवण का मद दूर कर उसे मारकर उसके पुष्पक विमान को प्राप्त किया। भद्र्रहस्ति को सिद्ध कर उसका नाम त्रिजगभूषण रखा। अपने आपको देव कहे जानेवाले विद्याधरवंशी सहस्रार के पुत्र इन्द्र को जो अपने आपको पृथ्वी का इन्द्र कहता था, पराक्रमी रावण ने युद्ध में विरथ कर पकड़ लिया।

धर्मानुरागी रावण प्रतिदिन पूजा अर्चना तथा भक्ति किया करता था। विद्याधर इन्द्र से युद्ध करने हेतु प्रस्थान करते समय मार्ग में नर्मदा नदी के पास बालू की सुन्दर वेदी बनाकर, जिनवर की प्रतिमा स्थापित कर रावण ने उनका घी, दूध दही से अभिषेक किया। मुनियों के प्रति उसके मन में सम्मान का भाव था। रावण ने राजा सहस्रकिरण को युद्ध में पराजित कर पकड़ लिया था। जंघाचरण मुनि द्वारा उसको मुक्त करने के लिए कहा जाने पर उसने ससम्मान उनको मुक्त कर दिया। बालि के समक्ष अपनी निन्दा करने के पश्चात् रावण ने जिनालय में जाकर पूजा एवं भावों से परिपूर्ण संगीतमय भक्ति की, जिसको सुनकर धरणेन्द्र ने उसको अमोघविजय विद्या प्रदान की। 

दुर्लंघ्यनगर के राजा नलकूबर ने रावण का युद्ध करने आया जानकर अपने नगर को आशाली विद्या से सुरक्षित करवा दिया। रावण के उस नगर में प्रवेश करने पर रावण के यश को सुनकर नलकूबर की पत्नी उपरम्भा उस पर आसक्त हुई। उसने अपनी सखी के साथ रावण के पास उपरम्भा को चाहने एवं बदले में आशालीविद्या, सुदर्शन चक्र इन्द्रायुध को लेने का प्रस्ताव भेजा। सखी के प्रस्ताव को सुनकर रावण ने आश्चर्यपूर्वक कहा- अहो दुर्महिला का साहस, जो महिला कर सकती है वह मनुष्य नहीं कर सकता।  तभी विभीषण ने उसको समझाया कि अभी यहाँ भेद का दूसरा अवसर नहीं है। किसी प्रकार विद्या मिल जाये फिर उपरम्भा को मत छूना। तब रावण ने दूती से आशाली विद्या माँंग ली। युद्ध में विभीषण के द्वारा नलकूबर के पकडे़ जाने पर संयमी दशानन ने उपरम्भा को नहीं चाहा तथा नलकूबर से अपनी आज्ञा मनवाकर उपरम्भा के साथ उसको राज्य भोगने दिया।

विद्याधरवंशी इन्द्र के गुप्तचर ने रावण के गुणों का कथन इस प्रकार किया हैरावण युद्ध में अचिन्त्य है। वह मंत्र और प्रभुशक्ति से युक्त चारों विद्याओं में कुशल है। 6 प्रकार के बल 7 प्रकार के व्यसनों से मुक्त है। प्रचुरबुद्धि, शक्ति, सामथ्र्य और समय से गम्भीर है।  6 प्रकार के महाशत्रुओं का विनाश करनेवाला, 18 प्रकार के तीर्थों का पालन करनेवाला है। उसके शासनकाल में सभी स्वामी से सम्मानित हैं। उनमें कोई क्रुद्ध, भीरु अपमानित नहीं है। नीति के बिना वह एक भी कदम नहीं चलता। दिन और रात को 16 भागों में विभक्त कर अपनी क्रियाएँ करता है।

अपने एकाधिकार के आकांक्षी रावण ने बालि को अपना अहंकार दूर कर अधीनता स्वीकार कर राज्य का भोग करने हेतु कहा किन्तु बाली का अपने प्रति उपेक्षा भाव जानकर उससे युद्ध किया, जिसमें रावण पराजित हुआ।तदनन्तर बालि ने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। एक दिन आकाश मार्ग से जाते हुए रावण का पुष्पक विमान मुनि बाली की तप शक्ति से रुक गया। तब क्राेिधत हुए रावण अपनी विद्याओं के चिन्तन से कैलाश पर्वत को उखाड़ लिया। पहाड़ के हिलते ही चारों समुद्रों में भयंकर उथलपुथल मची। तभी धरणेन्द्र अवधिज्ञान से यह सब होना जानकर वहाँ आया। वहाँ आकर उसने जैसे ही बालिमुनि को प्रणाम किया वैसे ही कैलाशापर्वत नीचा हुआ। रावण के पर्वत के नीचे दबने से उसके मँुह से रक्त की धारा बह निकली। रावण के क्रन्दन करने पर समस्त अन्तःपुर सहित मन्दोदरी ने आकर धरणेन्द्र से अपने पति के प्राणों की भीख माँंगी। मन्दोदरी के करुण वचन सुनकर धरणेन्द्र ने धरती को ऊपर उठा दिया जिससे रावण बच गया। तब रावण ने तपश्चरण में लीन बालि के पास जाकर क्षमा याचना की।

मुनि अनन्तवीर ने रावण को मोहान्धकार से छूटने हेतु कोई एक व्रत ग्रहण करने के लिए कहा तो रावण ने व्रत ग्रहण करने में स्वयं को असमर्थ बताया। तब मुनि के बहुत कहने पर रावण ने बहुत सोचने के बाद एक व्रत ग्रहण किया किजो सुन्दरी मुझे नहीं चाहेगी उस परस्त्री को बलपूर्वक ग्रहण नहीं करूँगा।’  उसके बाद रावण अपने भानजे शम्बुकुमार का वध होना सुन अपने बहनोई खरदूषण का युद्ध में साथ देने गया। जैसे ही रावण दण्डकारण्य में पहुँचा, वहाँ उसे सीता दिखाई दी। उसके सौन्दर्य पर आसक्त हो रावण ने यह मान लिया कि जब तक मैं इसे नहीं पा लेता तब तक मेरे इस शरीर को सुख कहाँ। काम के तीरों से आहत वह काम की दसों अवस्थाओं को प्राप्त हुआ। तदनन्तर रावण ने अवलोकिनी विद्या से सीता का अपहरण करने का उपाय पूछा। विद्या ने उसे सीता की प्राप्ति होना बहुत कठिन बताया तथा उसके दुष्परिणामों से भी अवगत कराया। किन्तु रावण के दृढ़ संकल्प को देखकर अवलोकिनी विद्या ने उसे सीता को हरण करने का उपाय बताया। उस उपाय से रावण ने सीता का हरण कर लंका की ओर प्रस्थान किया।

2. सीताहरण के बाद रावण -

रावण लंका की ओर जाते हुए मार्ग में सीता के सामने एक दयनीय रूप में गिड़गिड़ाया - हे पगली, तुम मुझे क्यों नहीं चाहती, क्या मैं असुन्दर हूँ और उसका आलिंगन करना चाहा, किन्तु सीता के कठोर वचनों से दुःखी होकर रावण ने सोचा, यदि मैं इसे मार डालता हूँ तो मैं इसे देख नहीं सकूँंगा, अवश्य ही किसी दिन यह मुझे चाहेगी। रावण ने सीताहरण से पूर्व अपने पराक्रम से इन्द्र जैसे पराक्रमी राजा को भी अपने वश में किया था, तथा वानरवंशी राजाओं

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