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(मन्दोदरी के सन्दर्भ में) अज्ञान जनित राग व भय दुःख व अशान्ति का कारण


Sneh Jain

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यह संसार एक इन्द्रिय प्राणी से लेकर पाँच इन्द्रिय प्राणियों से खचाखच भरा हुआ है। इन सब प्राणियों में मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना गया है। मनुष्य की भी दो जातिया हैं - एक स्त्री और दूसरा पुरुष। सारा संसार मात्र इस स्त्री पुरुष की क्रिया से नियन्त्रित है।संसार का अच्छा या बुरा स्वरूप इन दो जातियों पर ही टिका हुआ है। संसार में जब-जब भी दुःख अशान्ति ने जन्म लिया तब- तब ही इन दोनों जातियों में उत्पन्न हुए करुणावान प्राणियों में ज्ञान का उद्भव हुआ और उन्होंने उस करुणा से उत्पन्न ज्ञान के सहारे सुख शान्ति का मार्ग खोजने का प्रयास किया। इस प्रयास में उनको बहुत साधना, तपस्या ध्यान, चिंतन मनन करना पड़ा। इन करुणावान ज्ञानी प्राणियों को हम साधु-साध्वी विद्वान- विदूषी के रूप में विभक्त कर सकते हैं। इन सभी ने अपनी साधना के आधार पर संसार के दुःखों का मूल कारण मनुष्य के अज्ञान में पाया। उन्होंने अनुभव किया कि मनुष्य अपनी अज्ञानता से जनित राग भय के वश होकर अपनी क्रिया को सही दिशा नहीं दे पाने के कारण ही दुःखी और अशान्त बना रहता है। भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत विद्यमान सभी धर्म सम्प्रदाय के साधु-साघ्वी, विद्वान-विदूषियों ने दुःख के कारणों का अनुसंधान कर उनका निराकरण करने हेतु सूत्र खोजें हैं।

भारतीय संस्कृति की जैनधारा की दिगम्बर आम्नाय के आध्यात्मिक संत आचार्य रविषेण ने ùपुराण में संसार के दुःखों का मूल कारण अज्ञान जनित राग-द्वेष अवस्था में देखा है। ùपुराण को आधार बनाकर ही दिगम्बर सम्प्रदाय के ही प्रमुख विद्वान, अपभ्रंश भाषा के प्रथम काव्यकार स्वयंभू ने अपभ्रंश भाषा में पउमचरिउ काव्य की रचना की है।स्वयंभू ने भी संसार के दुःखों का मूल कारण अज्ञानता में ही स्वीकार किया है। मनुष्य अज्ञानता के कारण ही हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील एवं आवश्यक्ता से अधिक परिग्रह जैसे पापों में लगा रहता है, परिणामस्वरूप दुःख भोगता रहता है। यहाँ पउमचरिउ (रामकथा) के प्रतिनायक लंका सम्राट रावण की पत्नी के जीवन में व्याप्त दुखों के माध्यम से संसार के दुःखों का कारण मनुष्य की पाप वृत्ति पर प्रकाश डाला जा रहा है। इसके माध्यम से हम देखेंगे कि एक मनुष्य अज्ञानतावश पाप के परिणाम को नहीं समझपाने के कारण अपने विद्यमान सुखों को नहीं भोग पाता और अपनी जिन्दगी को अशान्त बना लेता है।

पउमचरिउ में प्राप्त मन्दोदरी के संक्षिप्त जीवन कथन के आधार पर हम देख सकेंगे कि लंका सम्राट रावण की पत्नी सर्वसुविधा सम्पन्न होते हुए भी अज्ञानता से जनित राग भय के कारण ही दुःखी अशान्त हुई है। रावण के प्रति राग होने के कारण मन्दोदरी रावण के द्वारा किये गये अति घिनौने पाप का भी दृढ़ता से विरोध नहीं कर सकी। रावण के डराने पर भयभीत हुई मन्दोदरी भी भय के वश रावण का सीता से दूतकर्म कर पाप कर्म की भागीदार बनी, तथा उसने निर्भीक सीता को भी डराने का काम किया। राग में आसक्ति होने से उसने हनुमान जैसे गुणवान की भी निंदा की तथा अंग अंगद जो रावण के पाप के विरोधी थे उनका भी विरोध किया। मन्दोदरी ने रावण को समझाने में भले ही कोई कसर नहीं छोड़ी किन्तु राग भयवश उसने बीच-बीच में रावण का पक्ष भी लिया, जिससे रावण का मनोबल भी बढ़ता गया। यदि मन्दोदरी पाप के प्रति रावण का कट्टरता से विरोध करती और मात्र पाप के प्रसंग में वह रावण के राग और भय से आक्रान्त नहीं होती तो उसे सीता का भी सहयोग मिल जाता। दोनों का साथ रावण को पाप से विमुख करने में निश्चित रूप से समर्थ होता।

लंका सम्राट रावण की पत्नी मन्दोदरी को जन्मजात सौन्दर्यवती होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। वह श्रेष्ठ हथिनी की तरह लीला के साथ चलनेवाली, कोयल की तरह मधुर बोलनेवाली, हरिणी की तरह बड़ी-बड़ी आँखों वाली और चन्द्रमा के समान मुखवाली, कलहंसिनी की तरह स्थिर और मन्द गमन करनेवाली, स्त्री रूप से लक्ष्मी को उत्पीड़ित करनेवाली तथा अभिमानिनी, ज्ञानवाली जिनशासन में लगी हुई थी। रावण के राग में आसक्त हुई उसने रावण की व्याकुलता का कारण सीता के प्रति आसक्ति को नहीं समझकर खरदूषण शम्बूककुमार की मृत्यु को समझ लिया। उसे इस बात का पता तब लगा जब रावण ने स्वयं उसे कहा कि उसे खरदूषण का दुःख नहीं है उसे तो केवल इस बात का दाह है कि सीता उसे नहीं चाहती।

मन्दोदरी को रावण की सीता के प्रति आसक्ति का पता लगते ही उसने रावण को हिंसा असत्य, चोरी, कुशील परिग्रह रूप पापों से प्राप्त कुफल को समझाने की कोशिश की तथा अपने यश को यथावत बनाये रखने का परामर्श भी दिया। उसने कहा कि स्त्री का सुख वैसा ही है जैसा सुख असिपंजर में तथा सिंह की दाढ़ के भीतर है, यदि फिर भी तुम परस्त्री की इच्छा करते हो तो मुझसे क्यों पूछते हो। उसने व्यंग्योक्ति के आधार पर भी समझाने का प्रयास किया कि बलवान राजा के द्वारा किया गया कोई भी कार्य असुंदर नहीं कहलाता। उसने रावण को समझाने में तनिक भी कमी नहीं रखी। पुनः उसने कहा, सीता को आज ही वापस कर दो और अपने वंश को राम के दावानल में मत फँूको। तुमने इन्द्रजीत, कुम्भकर्ण और मेघवाहन को बंधन में डलवा दिया। तुम स्वजनों से विहीन राज्य का क्या करोगे। अभी भी सीता को सौंप देने पर तुम्हारा राज्य भी बच जायेगा तथा भाई-बंधु भी तुम्हारे सामने रहेंगे।

मन्दोदरी द्वारा रावण को समझाया जाने पर रावण ने उसकी परवाह नहीं करते हुए उसको धन जीवन का लोभ देकर डराया तथा उसे जानकी से अपना दूतकर्म करने के लिए प्रेरित किया। तब अपने ऐश्वर्य जीवन को समाप्त हुआ जान भयभीत हुई मन्दोदरी रावण का आदेश मानकर रावण की दूती बनकर सीता के पास गयी और सीता से कहा - तुम्हारा ही एक जीवन सफल है, रावण जहाँ तुम्हारी आज्ञा की इच्छा रखता है वहाँ तुम्हारे पास क्या नहीं है? तुम लंकेश्वर की महादेवी बन जाओ और समस्त धरती का भोग करो। यह सुनकर सीता ने मन्दोदरी की भत्र्सना की तो मन्दोदरी का मन काँप गया। सीता की भत्र्सना से भयभीत हुई मन्दोदरी ने सीता को भीयह कहकर भयभीत किया कि यदि तुम लंकाराज को किसी भी तरह नहीं चाहती तो तुम करपत्रों से तिल-तिल काटी जाओगी और निशाचरों को सौंप दी जाओगी। पुनः मन्दोदरी ने सीता को चूड़ा, कंठी, कटिसूत्र आदि आभूषण देते हुए कहा कि तुम रावण को चाहो और महादेवी पट्ठ तथा इन प्रसाधनों को स्वीकार करो, मैं इतनी अभ्यर्थना करती हूँ।

मन्दोदरी रावण के प्रति राग होने के कारण लंका में आये हनुमान को राम के पक्ष में मिला देखकर उस पर क्रुद्ध हो उठी और बोली, तुमको हमारा एक भी उपकार याद नहीं रहा जो इस प्रकार रावण को छोड़कर राम से मिल गये। जिस रावण से तुम सदैव सम्मानित होते आये हो आज यहीं तुम चोरों की तरह बाँंध लिए जाओेगे। जब हनुमान ने राम की प्रशंसा रावण की निंदा की तो रावण की निंदा से कुपित हुई मन्दोदरी ने हनुमान को बँधवाने की प्रतिज्ञा की। तब वहाँ से जाकर मन्दोदरी ने रावण से जाकर कहा, हनुमान ने आपके द्वारा किये गये उपकारों में से एक को भी नहीं माना, और वह हमारे शत्रुओं का अनुचर बन गया है।

अंग अंगद ने रावण को ध्यान से डिगाने हेतु मन्दोदरी को खींचकर बाहर निकाल लिया। तब भी मन्दोदरी ने अंग अंगद को ललकारा कि तुम्हारा यह पाप कल अवश्य फल लायेगा। दशानन कल तुम्हारी समूची सेना को नष्ट कर देगा।

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