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सीता के मन में स्थित आसक्ति का स्वरूप


Sneh Jain

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यहाँ हम देखेंगे कि राग की परम्परा किस प्रकार आगे तक चलती रहती है। राम की पत्नी सीता ने संन्यास अंगीकार कर मरण कर इन्द्रपद पाया। इन्द्रपद के भव मेें राम का समागम होना जानकर पुनः राग भाव उत्पन्न हुआ। यह राग ऐसा ही है जो भव-भव तक पीछा नहीं छोड़ता और यही मनुष्य की अशान्ति का कारण है।  सीता के जीव इन्द्र के माध्यम से हम राग के स्वरूप को देखेंगे।

राम ने सुव्रतनामक चारण मुनिराज के पास दीक्षा ग्रहणकर महाव्रत अंगीकार किये। बारह प्रकार का कठोर तप अंगीकार कर परीषह सहन का युक्तियों का पालन किया। छठे उपवास के बाद आहार करने के बाद बहुत दिनों तक धरती पर विहार किया और उसके बाद कोटिशिला प्रदेश में पहुँचे, और ध्यान में लीन हो गये। सीता का जीव जो संन्यासपूर्वक मरणकर अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुआ था उसने अपने अवधिज्ञान से  राम का कोटिशिला में जाकर ध्यानस्थ होना तथा लक्ष्मण का नरक में जाना जान लिया और विचार करने लगा कि यह वही राम हैं जो मनुष्य जन्म में हमारा पति था। फिर सीता के जीव इन्द्र ने पुनः विचार किया कि क्षपकश्रेणी में स्थित इनके ध्यान में मैं किस प्रकार बाधा पहुँचाऊँ, जिससे इनका मन विचलित हो जाय और इन्हें उज्जवल धवल केवलज्ञान उत्पन्न हो। तब ये मेरे मन चाहे मित्र, बहुत से रत्नों के स्वामी वैमानिक स्वर्ग के इन्द्र हो जायेंगे। तब मैं उनके साथ घूमूँगी, अभिनन्दन करूँगी और समस्त जिन भवनों की वंदना तथा नन्दीश्वर द्वीप की यात्रा करूँगी। उसके बाद लक्ष्मण जो नरक में हैं, उसे सम्यक् बोध देकर अपने साथ ले आऊँगी, और अन्त में राम को अपना समस्त दुःख-सुख बताऊँगी। मन में ये सब बातें सोचकर वह इन्द्र आधे ही पल में ध्यानस्थ राम के पास कोटिशिला पहुँचा।

वहाँ पहुँचकर इन्द्र ने कोटिशिला के चारों ओर सुन्दर उद्यान बना दिया। उस विजन एकान्त सुंदर महावन में इन्द्र सीता के रूप में राम के सम्मुख खड़ा हो गया और बोला, मैंने तुम्हारे विरह के वशीभूत हो तुम्हें याद करते करते तुमको खोजते- खोजते समस्त स्वर्ग प्रदेश छान मारा। बहुत समय के बाद अपने बचे हुए पुण्य के प्रताप से तुम्हें देख सकी हूँ। मैं वही सीता देवी हूँ और तुम वही राम हो। अब मैं तुम्हारा वियोग एक क्षण के लिए भी नहीं सहन कर सकती। हे राम, चार कषाय, और बाईस परीषह असह्य होते हैं। मेरे लिए तुमने समुद्रवज्रावर्त धनुष को चढ़ाया था, हनुमान को लंका भी मुझे ही खोजने भेजा था, मेरे ही कारण तुमने रावण को मारा था। हे राम अब तुम मेरे साथ अनन्त समय तक राज्य करो। इन्द्र का इतना कहने पर भी राम का मन विचलित नहीं हुआ। ध्यान में दृढ़ता से स्थित हुए राम ने चार घातिया कर्मों का नाश कर परम उज्जवल ज्ञान प्राप्त कर लिया। देवों ने आकर उनें केवलज्ञान की अर्चा की। तब सीता के जीव इन्द्र ने भी अपना सिर झुकाकर निवेदन किया कि हे त्रिभुवन से वन्दित! अविनय के कारण जो भारी अपराध किया है, उसके लिए मेरा अपराध क्षमा कर दो।  

यह है राग का दृश्य   सीता का जीव इन्द्र राग शमन कर गणधर होगा।

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