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(सीता): नारी के दुःखों का कारण राग, क्रोध एवं मान


Sneh Jain

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सीता पउमचरिउ काव्य के नायक राम की पत्नी के रूप में पउमचरिउकाव्य की प्रमुख नायिका हैं। यह नायिका भारतीय स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है। सीता के जीवन चरित्र के माध्यम से स्त्री के मन के विभिन्न आयाम प्रकट होंगे जिससे स्त्री की मूल प्रकृति को समझने में आसानी होगी। ब्लाग 5 में राम के जीवन चरित्र के माध्यम से हम पुरुष के मूल स्वभाव से परिचित हुए थे। देखा जाय तो अच्छा जीवन जीने के लिए सर्वप्रथम स्त्री और पुरुष दोनों के मूल स्वभाव की जानकारी आवश्यक है। रामकाव्यकारों का रामकथा को लिखने का सर्वप्रमुख उद्देश्य भी यही प्रतीत होता है। जैन रामकथाकारों ने राग तथा क्रोध, मान आदि कषायों को मनुष्य के दुःखों का कारण माना है और इनके अभाव में ही मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता बतायी है। सीता पुरुष के स्वभाव से एकदम अनभिज्ञ थी, बस पति को परमेश्वर मानकर उनके पीछे-पीछे चलती रही, पति में अति राग के कारण उनमें पति की अनुचित बात का विरोध करने का विवके सामथ्र्य ही उत्पन्न नहीं हुआ। फलस्वरूप राम का राजतिलक होने से पूर्व ही सीता का राम के साथ वनवास जीवन प्रारम्भ हो गया, वनवास काल में सीता का हरण हुआ, राम ने राजगद्दी पर बैठते ही प्रजा के भय से  सीता को गर्भकाल में ही निर्वासन दे दिया और अन्त में राम के कहने पर अग्निपरीक्षा भी स्वीकार कर ली।  अग्निपरीक्षा में सफल होने पर राम ने जब सीता से अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना की तो सीता ने उनको क्षमा भी नहीं किया तथा संसार के दुःखों से भयभीत हो शाश्वत सुख हेतु दीक्षा ग्रहण कर ली।

 यहाँ हम सीता के जीवन-काल को तीन भागों 1. वनवासकाल  2. हरणकाल 3. निर्वासनकाल में घटी घटनाओं को देखेंगे जिससे हमें स्त्री के मूल स्वभाव पर प्रकाश पड सकेगा। 

1. वनवासकाल

वनवास काल में सीता ने मुनिवर के आगमन पर भक्तिपूर्वक स्तुति की तथा राम के सुघोष वीणा बजाने पर चैसठ भुजाओं का प्रदर्शन कर भक्तिभावपूर्वक नृत्य किया। राम के साथ मुनिराज की आहार चर्या पूरी की।  सीतादेवी ने दुःखी खगेश्वर जटायु कोे अपने वात्सल्य भाव से आशीर्वचन दिया।

वंशस्थल को आहत कर लौटे हुए लक्ष्मण को देखकर सीता ने भय से काँपते हुए कहा- लता मंडप में बैठे हुए और वन में प्रवेश करने के बाद भी सुख नहीं है। लक्ष्मण जहाँ भी जाते हैं वहाँ कुछ कुछ विनाश करते रहते हैं। रावण की बहन चन्द्रनखा ने राम और लक्ष्मण पर आसक्त होकर उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने के लिये रोना शुरू किया। तब सीता उसके माया भाव को नहीं समझती हुई सहजता से बोली, राम ! देखो यह कन्या क्यों रोती है ? समय से छिपा हुआ दःुख ही इसे उद्वेलित कर रहा है।

 

 

2. हरण-काल 

लंकानगरी में हनुमान से राम की वार्ता जानकर सीता पहले तो सहज भाव से प्रसन्न हुई किन्तु बाद में सतर्क होकर सोचने लगी - यह राम का ही दूत है या कोई दूसरा ही आया है, यहाँ तो बहुत से विद्याधर हैं, मैं तो सभी में सद्भाव देख लेती हूँ। जैसे पहले चन्द्रनखा विवाह का प्रस्ताव लेकर आयी और बाद में किलकारी मारकर हमारे ऊपर ही दौड़ी। तब विद्याधर ने सिंहनाद कर मेरा अपहरण करके मुझे राम से अलग कर दिया। लगता है यह भी किसी छल से मेरा मन थाहना चाहता है।

लक्ष्मण के शक्ति से आहत होने तथा इससे राम के दुःखी होने का समाचार सुनकर सीता ने दहाड़ मारकर रोते हुए अपने कठोर भाग्य को कोसा - अपने भाई और स्वजनों से दूर, दुःखों की पात्र, सब प्रकार की शोभा से शून्य मुझ जैसी दुःखों की भाजन इस संसार में कोई भी स्त्री हो।

सीता को हरणकर ले जाते हुए रावण ने समुद्र के मध्य सीता से कहा- हे पगली! तुम मुझे क्यों नहीं चाहती? महादेवी के पट्ट की इच्छा क्यों नहीं करती? और उसका आलिंगन करना चाहा। तब सीता ने उसके इस आचरण की तीव्र भत्र्सना की। इस भत्र्सना रूपी अस्त्र ने ही रावण को स्वयं के द्वारा गृहीत व्रत का स्मरण दिलाया। उस व्रत को स्मरण कर रावण ने कहा- मुझे भी अपने व्रत का पालन करना चाहिए, बलपूर्वक दूसरे की स्त्री को ग्रहण नहीं करना चाहिए। तब सीता ने पति के समाचार नहीं मिलने तक नन्दन वन में ही रहने के लिये कहा तो रावण ने उसकी बात मान ली।

पुनः रावण सीता के समक्ष याचक बनकर गिड़गिड़ाया- हे देवी! हे सुर सुन्दरी! मैं किससे हीन हूँ, क्या मैं कुरूप हूँ या अर्थ रहित हूँ ? बताओ, किस कारण से तुम मुझे नहीं चाहती ? तब सीता ने उसका तिरस्कार करते हुए कहा, हे रावण! तुम हट जाओ। तुम मेरे पिता के समान हो। परस्त्री को ग्रहण करने में कौन सी शुद्धि होती है। तुम्हारे अपयश का डंका बजे और जब तक लंकानगरी नाश को प्राप्त नहीं हो उससे पहलेही हे नराधिप, तुम राघव चन्द्र के पैर पकड़ लो।

रावण ने यह सोचकर कि शायद यह भय के वश मुझे चाहने लगे उसको भयभीत करने के लिये भयंकर उपसर्ग करने शुरु किये। उस भयानक उपसर्ग को देखने से उत्पन्न हुए रौेद्र भाव को दूर कर तथा अपने मन को धर्म ध्यान से आपूरित कर सीता ने प्रतिज्ञा ले ली कि जब तक मैं गम्भीर उपसर्ग से मुक्त नहीं होती तब तक मेरे चार प्रकार के आहार से निवृत्ति है। इस तरह धर्मपूर्वक सीता ने भयानक उपसर्ग को भी सहन कर लिया।

पुनः रावण ने सीता को वश में करने के लिये अपनी ऋद्धि के प्रभाव से उसे पुष्पक विमान पर चढ़ाकर बाजार की शोभा दिखायी। चूड़ा, कण्ठा, करघनी आदि महादेवी का प्रसाधन स्वीकार करने के लिये कहा। तब सीता ने उन सभी ऋद्धियों का तिरस्कार कर कहा- तुम अपनी यह ऋद्धि मुझे क्यों दिखाते हो? यह सब अपने लोगों के मध्य दिखाओ। उस स्वर्ग से भी क्या, जहाँ चाऱित्र का खंडन है। मेरे लिये तो शील का मंडन ही पर्याप्त है। सीतादेवी की इस अलोभ प्रवृत्ति ने ही रावण को अपनी निन्दा करने को विवश कर दिया और उसने कहा - मैं किस कर्म के द्वारा क्षुब्ध हूँ जो सब जानता हुआ भी इतना मोहित हूँ। मुझे धिक्कार है कि मैंने इसकी अभिलाषा की। तभी स्वयं को धिक्कारते हुए वह सीता को छोड़कर वहाँ से चला गया।

पुनः रावण अपने आपको चन्दन से अलंकृत कर, अमूल्य वस्त्र धारण कर तथा त्रिजगभूषण हाथी पर बैठकर सीता के पास पहुँचा। वहाँ अपने पराक्रम का बखान करता हुआ राम उनके प्रमुखजनों को मारने की            धमकी देने लगा। उसने कहा- तुम जो अभी तक बची हुई हो वह मात्र मेरे संकल्प के कारण। तब रावण ने अपनी विद्या से राम आदि कोे मरते हुए  दिखाकर तथा नाना रूपों का प्रदर्शन कर सीता को भयभीत करना प्रारम्भ किया। तब शीलरूप चारित्र का निर्वाह करते हुए सीतादेवी ने कहा- हे दशमुख! राम के मरने के बाद मैं एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकती जहाँ दीपक होगा वहीं उसकी शिखा होगी, जहाँ चाँद होगा वहीं चाँंदनी होगी और जहाँ राम हांेगे सीता भी वहीं होगी यह कहते-कहते सीता मूच्र्छित हो गयी। सीता के इस दृढ़ शीलव्रत ने ही रावण को दूर हटने अपनी निन्दा करने को विवश किया। उसने कहा- कल मैं युद्ध में राम लक्ष्मण को बन्दी बनाऊंगा और उन्हें सीतादेवी को सौंप दूँगा।

मन्दोदरी रावण की दूती बनकर सीता के पास गयी। वहाँ जाकर मन्दोदरी ने रावण के वैभव का तरह-तरह से बखान करने के बाद कहा -तुम लंकेश्वर दशानन की महादेवी बन जाओ। इस पर क्रुद्ध होकर सीता ने निष्ठुर वचन में  कहा -‘‘उत्तम स्त्रियों के लिये यह उपयुक्त नहीं है,

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