प्राणरक्षा - अमृत माँ जिनवाणी से - २३
? अमृत माँ जिनवाणी से - २३ ?
"प्राणरक्षा"
१९५२ को ग्रन्थ के लेखक ने आचार्य शान्तिसागरजी महाराज के बारे मे जानने हेतु उनके गृहस्थ जीवन के छोटे भाई के पुत्र से मिले।उन्होंने बताया-
महाराज की दुकान पर १५-२० लोग शास्त्र सुनते थे।मलगौड़ा पाटिल उनके पास शास्त्र सुनने रोज आता था। एक रात वह शास्त्र सुनने रोज आता था। एक रात शास्त्र सुनने नहीं आया, तब शास्त्र चर्चा के पश्चात महाराज उनके घर गये, वहाँ नहीं मिलने से रात में ही उनके खेत पर पहुँचे, वहाँ वे क्या देखते हैं कि मलगोड़ा ने गले में फाँसी का फन्दा लगा लिया है और वह मरने के लिए तत्पर है। यदि कुछ देर और हो जाती, तो उसकी जीवन लीला समाप्त हो गयी होती।
सौभाग्य से वह उसी समय जीवित था। महाराज ने उसका फंदा खोला व् अपनी दुकान में लाकर खूब समझाया।
उसकी अंतर्वेदना दूर की, जिससे उसने आत्महत्या का विचार बदल किया।गृहस्थ जीवन में महाराज, मेरी माता तथा आजी एक बार ही भोजन करते थे।
जब महाराज मेरी माता के समक्ष अपनी दीक्षा लेने की बात कहते थे, तब मै आकर उनके पैरो से लिपट जाता था और कहता था -
"अप्पा ! अभी आपको नहीं जाने दूँगा। अभी मै छोटा हूँ। बड़े होने के बाद आप मुझे समझाकर जावें।" इस पर वे मुझे संतोषित करते थे।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
0 Comments
Recommended Comments
There are no comments to display.