प्रतिभा द्वारा प्रभावना - अमृत माँ जिनवाणी से - ८२
☀इस प्रसंग कोई पढ़कर आपको आचार्यश्री की प्रतिभा व् धर्म प्रभावना की जानकारी मिलेगी साथ ही वर्तमान में हम सभी को भी धर्म के सम्बन्ध में परिस्थिति वश कैसे विवेक रखना चाहिए यह सीखने मिलेगा।
? अमृत माँ जिनवाणी से - ८२ ?
"प्रतिभा द्वारा प्रभावना"
एक बार आचार्य महाराज हुबली पहुँचे। वहाँ अन्य संप्रदाय के साधु विद्यमान थे। उनके संघनायक सिद्धारूढ़ स्वामी लिंगायत साधु महान विद्वान् थे। आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की सर्वत्र श्रेष्ठ साधु के रूप में कीर्ति का प्रसार हो रहा था, इसलिए वे पालकी में आरूढ़ होकर अपने शिष्य समुदाय के साथ आचार्य महाराज के निकट आकर बैठ गए।
अपने संप्रदाय के विशेष अहंकारवश उन्होंने जैन गुरु को प्रणाम करना अपनी श्रद्धा के प्रतिकूल समझा था। आचार्य महाराज की इस विषय में उपेक्षा दृष्टि रहती थी, कारण की प्रणाम करने या ना करने से उनकी ना कोई हानि होती थी और न लाभ भी होता था।
उस समय नेमिसागरजी शास्त्र पढ़ रहे थे। सम्यकत्व तथा मिथ्यात्व का प्रकरण चल रहा था। कुछ समय तक लिंगायत स्वामी ने शास्त्र सुना और प्रश्न किया, "बार-बार सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्व का शब्द सुनने में आ रहा है। सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का क्या भाव है?"
महा मिथ्यात्व के रोग में ग्रस्त व्यक्ति को कैसे सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का भेद समझाया जावे ? उत्तर देना सामान्य बात नहीं थी। उत्तर तो कोई भी दे सकता था, किन्तु उत्तर ऐसा आवश्यक था, जो ह्रदय को समाधानप्रद हो तथा जिससे कटुता उत्पन्न न हो।
आचार्य महाराज की प्रतिभा ने एक सुन्दर समाधान सोचा। उन्होंने ये अनमोल शब्द कहे- "भीतर देखना सम्यक्त्व है। बाहर देखना मिथ्यात्व है।" महाराज ने कन्नडी भाषा में ये वाक्य कहे थे। इसे सुनते ही उसका ह्रदय कमल खिल गया। उस ज्ञानवान साधू को अवणनीय आनंद आया।
उन्होंने आचार्य महाराज को साष्टांग प्रणाम किया और कहा- "ऐसे सद्गुरु का मुझे अपने जीवन में प्रथम बार दर्शन हुआ। ऐसे महापुरुष को ही अपना गुरु बनाना चाहिए।"
उनके सभी शिष्यों ने महाराज को प्रणाम किया।
हजारों व्यक्तियों के मुख से जैन गुरु के गौरव और स्तुति के वाक्य निकले थे। उस समय बड़ी प्रभावना हुई थी। लाखों लोग कहते थे, सच्चा साधुपना तो शांतिसागर महाराज में हैं।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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