शिष्य को गुरुत्व की प्राप्ति - अमृत माँ जिनवाणी से - ८१
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? अमृत माँ जिनवाणी से - ८१ ?
"शिष्य को गुरुत्व की प्राप्ति"
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरज़ी महराज का संस्मरण बताते हुए पूज्य मुनिश्री १०८ आदिसागरजी महाराज ने बताया कि-
आचार्य शान्तिसागरजी महाराज ने (मुनि देवेन्द्रकीर्ति महाराज) से क्षुल्लक दीक्षा ली थी। देवप्पास्वामी सन् १९२५ में श्रवणबेलगोला में थे, उस समय महाराज भी वहाँ पहुंचे।
देवप्पा स्वामी ने वहाँ महाराज का शास्त्रोक्त जीवन देखा और जब उससे उन्होंने अपनी शिथिलाचार पूर्ण प्रव्रत्ति की तुलना की, तब उनको ज्ञात हुआ कि मेरी प्रव्रत्ति मुनि पदवी के अनुकूल नहीं है।
देवप्पा स्वामी दस गज लंबा वस्त्र ओढ़ते थे। उद्दिष्ट स्थान पर जाकर आहार लेते थे। आहार के समय वे दिगंबर होते थे। भोजन के समय जोर से घण्टा बजता था, ताकि भोजन में अंतराय रूप वाक्य करणेंद्रिय गोचर ही ना हों। ऐसी अनेक बातें थी। देवप्पा स्वामी सच्चे मुमुक्षु थे। विषयों से विरक्त थे। उनको सम्यक प्रणाली का पता ना था।
उन्होंने आचार्य महाराज से कहा- "मुझे छेदोपस्थापना दीजिये। आगम के अनुसार मेरा कल्याण कीजिए। आपके शास्त्रोक्त जीवन से मेरी आत्मा प्रभावित हो उठी है।"
आचार्य महाराज को उनको यथायोग्य प्रश्चित्यपूर्वक पुनः दीक्षा दी। उनके गुरु ने भी गुरुत्व का त्याग कर शिष्य पदवी स्वीकार की। सत्पुरुष आत्महित को ही सर्वोपरि मानते हैं।
आचार्य महाराज को अपने गुरु के सम्बन्ध की यह चर्चा करना अच्छा नहीं लगता था।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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