त्याग भाव - अमृत माँ जिनवाणी से - २४
? अमृत माँ जिनवाणी से - २४ ?
"त्याग भाव"
एक दिन लेखक ने आचार्य शान्तिसागरजी महाराज से पूंछा, "महाराज आपके वैराग्य परिणाम कब से थे?"
महाराज, "छोटी अवस्था से ही हमारे त्याग के भाव थे। १७ या १८ वर्ष की अवस्था में ही हमारे निर्ग्रन्थ दीक्षा लेने के परिणाम थे। जो पहले बड़े-बड़े मुनि हुए है, वे सब छोटी ही अवस्था में निर्ग्रन्थ बने थे।"
मैंने पूछा, "फिर कौन सी बात थी, जो आप उस समय मुनि न बन सके?"
महाराज, "हमारे पिता का हम पर बड़ा अनुराग था। पिताजी ने आग्रह किया कि जब तक हमारा जीवन है, तब तक तुम घर में ही रहकर धर्म साधन करो। तुम्हारे घर से बाहर चले जाने से हमे बड़ा संक्लेश होगा।
योग्य पुत्र का कार्य पिता को क्लेश उत्पन्न करने का नहीं है। अतः पिताजी के आग्रहवश हमे घर में ही रहना पड़ा। घर पर भी हम अत्यंत उदास रहते थे। हमारी भी किसी लौकिक कार्य में रूचि नहीं थी।"
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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