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जैनवाणी में सम्यक्त्व धारा - अमृत माँ जिनवाणी से - ३५


Abhishek Jain

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?     अमृत माँ जिनवाणी - ३५     ?


       "जैनवाड़ी में सम्यक्त्व धारा"

  
     आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का क्षुल्लक अवस्था मे तृतीय चातुर्मास कोगनोली के उपरांत उन्होंने कर्नाटक की और विहार किया।

          जैनवाड़ी में आकर उन्होंने वर्षायोग का निश्चय किया। इस जैनवाड़ी को जैनियो की बस्ती ही समझना चाहिए। वहाँ प्रायः सभी जैनी ही थे।

       किन्तु वे प्रायः अज्ञान मे डूबे हुए थे। सभी कुदेवो की पूजा करते थे।

      महाराज की पुण्य देशना से सभी श्रावको ने मिथ्यात्व का त्याग किया और घर से कुदेवो को अलग कर कई गाडियो मे भरकर उन्हें नदी मे सिरा दिया।

      उस समय वहाँ के जो राजा थे, यह जानकर आश्चर्य मे पड़े कि क्षुल्लक महाराज (आचार्य महाराज) तो बड़े पुण्य चरित्र महापुरुष हैं, वे भला क्यों हम लोगो के द्वारा पूज्य माने गए देवो को गाड़ी मे भरकर नदी मे डुबाने का कार्य क्यों कराते हैं?राजा और रानी, दोनो ही महाराज की तपश्चर्या से पहले ही खूब प्रभावित थे। उनके प्रति बहुत आदर भी रखते थे।

         एक दिन राजा पूज्यश्री की सेवा मे स्वयं उपस्थित हुए और बोले- "महाराज ! आप यह क्या करवातें हैं, जो गाडियो में भरकर देवो को पहुचा देते हैं?"

         महाराज ने कहाँ- "राजन ! आप एक प्रश्न का उत्तर दो कि आप के यहाँ गण्पति की स्थापना होती है कि नहीं ?"

      राजा ने कहा- "हां महाराज ! हम लोग गणपति को विराजमान करते हैं।

      महाराज ने कहाँ- "उनकी स्थापना के बाद क्या करते हैं?"

     राजा ने कहाँ- "महाराज हम उनकी पूजा करते हैं, भक्ति करते हैं।"

    महाराज ने पूंछा- "उस उत्सव के बाद क्या करते हैं?"

    राजा ने कहा- "महाराज बाद मे हम उनको पानी मे सिरा देते हैं।"

    महाराज ने पूछा- "जिनकी आपने भक्ति से पूजा की, आराधना की उनको पानी मे क्यों डूबो दिया?"

     राजा ने कहा- "महाराज, पर्व पर्यन्त ही गणपति की पूजा का काल था। उसका काल पूर्ण होने पर उनको सिराना ही कर्तव्य है।"

     महाराज ने पूंछा- "उनके सिराने के बाद आप फिर किनकी पूजन करतें हैं?"

    राजा ने कहा- "महाराज हम उसके पश्चात राम, हनुमान आदि की मूर्तियो की पूजा करते हैं।"

     महाराज ने कहा- "राजन ! जैसे पर्व पूर्ण होने के पश्चात गणपति को आप सिरा देते हैं और रामचंद्रजी आदि की पूजा करते हैं, उसी प्रकार इन देवो की पूजा का पर्व समाप्त हो गया। जब तक हमारा आना नही हुआ था, इनकी पूजा का काल था। अब जैन गुरु के आने से उनका कार्य पूर्ण हो गया, इससे उनको सिरा देना ही कर्तव्य है।

      जिस प्रकार आप राम,हनुमान आदि की पूजा करते हैं, इसी प्रकार हमारे मंदिर में स्थायी मूर्ति तीर्थंकरों की, अरहंतो की रहती है, उनकी पूजा करते हैं।"

     पूज्यश्री के युक्ति पूर्ण विवेचन से राजा का संदेह दूर हो गया। वे महाराज को प्रणाम कर संतुष्ट होकर राजभवन को लौट गए।


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?

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