गुफा में ध्यान और सर्प उपद्रव में स्थिरता - अमृत माँ जिनवाणी से - ३३
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३३ ?
"गुफा मे ध्यान व सर्प उपद्रव में स्थिरता"
आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के पास दूर-दूर के प्रमुख धर्मात्मा श्रावक धर्म लाभ के लिए आते थे। धर्मिको के आगमन से किस धर्मात्मा को परितोष ना होगा, किन्तु अपनी कीर्ति के विस्तार से महाराज की पवित्र आत्मा को तनिक भी हर्ष नही होता था।वे बाल्य जीवन से ही ध्यान और अध्यन के अनुरागी थे।
अब प्रसिद्धिवश बहुत लोगो के आते रहने से ध्यान करने मे बाधा सहज ही आ जाती थी।इससे महाराज ने पहाड़ी की एक अपरिचित गुफा मे मध्यान की सामयिक के लिए गए और सामयिक करने लगे। गुफा के पास मे झाड़ी थी और उसमे सर्पादिक जीवो का भी निवास था।
गुरुभक्त मंडली ने देखा आज महाराज ध्यान के लिए दूसरे स्थान पर गए हैं। अब उन्होंने उनको ढूढ़ना प्रारम्भ किया और कुछ समय के पश्चात वे गुफा के समीप आ गए, जिसमें महाराज तल्लीन थे।
उस समय एक सर्प झाड़ी में से निकला और गुफा के भीतर जाते लोगो को दिखा।कुछ समय वह भीतर फिरकर बाहर निकालना चाहता था कि एक श्रावक ने गुफा के द्वार पर एक नारियल चढ़ा दिया। उसकी आहट से सर्प पुनः भीतर घुस गया।
वहाँ वह महाराज के पास गया और उनके शरीर पर चढ़कर उसने उनके ध्यान मे विघ्न डालने का प्रयत्न किया।
किन्तु उसका उन पर कोई भी असर नही हुआ। वे भेद विज्ञान की विमल ज्योति द्वारा शरीर और आत्मा को भिन्न-२ देखते हुए अपने को चैतन्य का पुंज सोचते थे, अतः शरीर पर सर्प आया है, वह यदि दंश कर देगा, तो मेरे प्राण ना रहेंगे, यह बात उन्हें भय विहल ना बना सकी।
वे वज्रमूर्ति की तरह स्थिर रहे आए। शरीर मे अचलता थी, भावो मे मेरु की भांति स्थिरता थी। आत्मचिंतन से प्राप्त आनंद में अपकर्ष के स्थान पर उत्कर्ष ही हो रहा था।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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