सर्पराज का मुख के समक्ष खड़ा रहना - अमृत माँ जिनवाणी से - ३०
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३० ?
"सर्पराज का मुख के समक्ष खड़ा रहना"
एक दिन शान्तिसागरजी महाराज जंगल में स्थित एक गुफा में ध्यान कर रहे थे कि इतने में सात-आठ हाथ लंबा खूब मोटा लट्ठ सरीखा सर्प आया। उसके शरीर पर बाल थे। वह आया और उनके मुँह के सामने फन फैलाकर खड़ा हो गया।
उसके नेत्र ताम्र रंग के थे। वह महाराज पर दृष्टि डालता था और अपनी जीभ निकालकर लपलप करता था।उसके मुख से अग्नि के कण निकलते थे।
वह बड़ी देर तक हमारे नेत्रो के सामने खड़ा होकर हमारी ओर देखता था। हम भी उसकी ओर देखते थे।
मैंने पूंछा, "महाराज ! ऐंसी स्थिति में भी आपको घबराहट नहीं हुई?"
महाराज ने कहा, "हमे भय कभी होता ही नहीं। हम उसको देखते रहे, वह हमें देखता रहा। एक दूसरे को देख रहे थे।"
सर्पराज शांति के सागर को देखता था और शांति के सागर उस यमराज के दूत को अपनी अहिंसा पूर्ण दृष्टी से देखते थे। यह अमृत और विष की भेट थी अद्भुत दृश्य् था वह।
मैंने पूंछा, "महाराज ! उस समय आप क्या सोचते थे?"
महाराज ने कहा, "हमने यही सोचा था कि, "यदि हमने इस जीव का बिगाड़ कुछ पूर्व में किया होगा, "तो यह हमे बाधा पहुंचावेगा, नहीं तो यह सर्प चुपचाप चला जायेगा।"
महाराज का विचार यथार्थ निकला । कुछ काल के बाद सर्पराज महाराज को साम्य और धैर्य की मूर्ति तथा शांति का सिंधु देखकर अपना फन नीचा कर, मानो मुनिराज के चरणों में प्रणाम करता हुआ, "धीरे धीरे गुफा के बाहर जाकर ना जाने कहाँ चला गया।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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