मिथ्यादृष्टि का लक्षण और फल
आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि विभिन्न पर्यायों में आसक्त हुआ जीव मिथ्या दृष्टि होता है। जो कर्म करके आसक्त नहीं होता उसकी दृष्टि निर्मल होती है, किन्तु जिसकी बहुत आसक्ति होती है उसकी दृष्टि निर्मल नहीं हो सकती। वह जीव मिथ्यादृष्टि होता है। आसक्ति के कारण वह बहुत प्रकार के कर्मों को बांध लेता है, जिससें उसका संसार से भ्रमण समाप्त नहीं होता। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
77. पज्जय-रत्तउ जीवडउ मिच्छादिट्ठि हवेइ।
बंधइ बहु-विह-कम्मडा जंे संसारु भमेइ।।
अर्थ -पर्याय में अनुरक्त जीव मिथ्यादृष्टि होता है। वह बहुत प्रकार के कर्मों को बाँधता है, जिससे वह संसार में भ्र्रमण करता है।
शब्दार्थ - पज्जय-रत्तउ- पर्याय में अनुराग युक्त, जीवडउ-जीव, मिच्छादिट्ठि-मिथ्यादृष्टि, हवेइ-होता है, बंधइ-बाँधता है, बहु-विह-कम्मडा- बहुत प्रकार के कर्मों को, जें - जिससे, संसारु-संसार में, भमेइ-भ्रमण करता है।
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