मूर्ख व्यक्ति की धारणा
पूर्व कथित बात को ही पुष्ट करते हुए आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि यह व्यक्ति कर्म से रचित भेदों को ही अपना मूल स्वरूप समझलेने के कारण अपनी आत्मा के मूल स्वरूप को भूल जाता है। इसी कारण शान्ति के मार्ग से भटककर अशान्ति के मार्ग पर चल देता है, जिसका परिणाम होता है दुःख और मानसिक तनाव। कर्म से रचित भेदों को अपना मानने के कारण ही व्यक्ति अपने को गोरा, काला, दुबला, मोटा आदि मानता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
80. हउँ गोरउ हउँ सामलउ हउँ जि विभिण्ण्उ वण्णु।
हउँ तणु-अंगउँ थूलु हउँ एहउँ मूढउ मण्णु।।
अर्थ - मैं गोरा (हूँ), मैं काला (हूँ), मैं अनेक रंग (वाला हूँ), मैं कृश शरीर (वाला) हूँ, मैं स्थूल (मोटा हूँ), इस प्रकार (माननेवाले को) (तुम) मूढ (मूर्ख) समझो।
शब्दार्थ - हउँ - मैं, गोरउ-गोरा, हउँ-मैं, सामलउ-काला, हउँ-मैं, जि-पादपूर्ति हेतु प्रयुक्त अव्यय, विभिण्ण्उ-अनेक, वण्णु-रंग, हउँ-मैं, तणु-अंगउँ- कृश शरीर, थूलु-स्थूल, हउँ-मैं, एहउँ-इस प्रकार, मूढउ -मूढ, मण्णु-समझो।
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