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आसक्ति का दुष्परिणाम


Sneh Jain

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परमात्मप्रकाश का प्रत्येक दोहा आचार्य योगीन्दु के मन में प्रत्येक प्राणी के प्रति प्रेम होने का द्योतक है। वे चाहते हैं कि सृष्टि का प्रत्येक जीव सुख और शान्ति का जीवन जीवे तथा दुःखों से दूर रहे। उनके अनुसार प्रत्येक जीवके दुःख का कारण उसके मन की आसक्ति ही हैै। इस आसक्ति के कारण वह दूसरों से अपेक्षा रखता है और दूसरे उससे अपेक्षा रखते हैं। स्वयं की अपेक्षा पूरी नहीं होने तथा दूसरों की अपेक्षा पूरी नहीं कर पाने के कारण ही प्राणी दुःख भोगता है। आसक्ति नहीं होने पर व्यक्ति कीचड़ में कमल के समान तथा राज महल में भी योगी के समान जीकर एक शान्त जीवन जी सकता है। आसक्ति ही कर्मबन्ध का कारण है, और ये कर्म ही व्यक्ति को गलत मार्ग में गिराकर उसके लिए दुःख उत्पन्न करते हैं। आसक्ति रहित व्यक्ति प्रत्येक प्राणी का प्रिय होता है। हमारे सभी महापुरुषों का जीवन आसक्ति रहित होने के कारण ही संसारी प्राणियों के लिए प्रेरणास्पद रहा है। मेरा सभी पाठकों से अनुरोध है कि आपसे जितना संभव हो सके लोगों को योगिन्दु महाराज की इस वाणी से जोडे़ निश्चितरूप से सभी इससे लाभान्वित होंगे। देखिये इसी से सम्बन्धित आगे का दोहा -

 

78.   कम्मइँ - दिढ-घण-चिक्कणइँ गरुवइँ वज्ज-समाइँ।

     णाण-वियक्खणु जीवडउ उप्पहि पाडहिँ ताइँ।। 

अर्थ - वेे मजबूत, घने, चिकने, तथा वज्र के समान भारी कर्म, ज्ञान से दक्ष प्राणी को खोटे मार्ग में गिरा देते हैं।

शब्दार्थ - कम्मइँ - दिढ-घण-चिक्कणइँ-  मजबूत, घने, चिकने कर्म, गरुवइँ-भारी, वज्ज-समाइँ-वज्र के समान, णाण-वियक्खणु - ज्ञान से दक्ष, जीवडउ-प्राणी को, उप्पहि-खोटे मार्ग में, पाडहिँ-गिरा देते हैं, ताइँ - वे

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