विपरीत दृष्टि जीव की पहचान
आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि जिसकी दृष्टि सम्यक् नहीं होती बल्कि सम्यक् से विपरीत होती है, वह वस्तु के स्वरूप का जैसा वह है, उससे विपरीत रूप में आकलन करता है तथा कर्म से रचित भावों को अपना आत्मस्वरूप समझता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
79. जीउ मिच्छत्ते ँ परिणमिउ विवरिउ तच्चु मुणेइ।
कम्म-विणिम्मिय भावडा ते अप्पाणु भणेइ।। 79।।
अर्थ - मिथ्यात्व से परिपूर्ण हुआ जीव तत्व (वस्तु स्वरूप) को विपरीत जानता है।( वह) कर्म से रचित उन भावों को अपना कहता है।
शब्दार्थ - जीउ-जीव, मिच्छत्ते ँ-मिथ्यात्व से, परिणमिउ-परिपूर्ण हुआ, विवरिउ-विपरीत, तच्चु-तत्व को, मुणेइ-जानता है, कम्म-विणिम्मिय-कर्म से विरचित, भावडा-भावों को, ते-उन, अप्पाणु-अपना, भणेइ-कहता है।
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