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Sneh Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु ज्ञानीव्यक्ति के विषय में कहते हैं कि वह दुःख और सुख को समता भाव से सहता है, जिसके कारण उसके कर्मों की निर्जरा होती है और वह आसक्ति से रहित कहा जाता है।  देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
    36.   दुक्खु वि सुक्खु सहंतु जिय णाणिउ झाण-णिलीणु।
         कम्महँ णिज्जर-हेउ तउ वुच्चइ संग-विहीणु।।।
    अर्थ - दुःख और सुख को सहता हुआ ध्यान में पूर्णरूप से विलीन ज्ञानी जीव निर्जरा (कर्मों के क्षय) का कारण होता है, तब वह आसक्ति से रहित कहा जाता है। 
    शब्दार्थ - दुक्खु-दुःख, वि-और, सुक्खु-सुख को, सहंतु-सहता हुआ, जिय-जीव, णाणिउ-ज्ञानी, झाण-णिलीणु-ध्यान में पूर्णरूप से विलीन, कम्महँ -कर्मों की, णिज्जर-हेउ-निर्जरा का कारण, तउ-तब, वुच्चइ-कहा जाता है, संग-विहीणु-आसक्ति से रहित।
  2. Sneh Jain
    स्वदर्शन के बाद आचार्य योगीन्दु ज्ञान के विषय में स्पष्टरूप से कहते हैं कि जो ज्ञान सम्यक्दर्शन होने में कारण है तथा जो वस्तु के भेओ को स्पष्टतः जानता है वह सद्बोधात्मक ज्ञान ही स्थिर ज्ञान है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    35.   दंसण-पुव्वु हवेइ फुडु जं जीवहँ विण्णाणु।
          वत्थु-विसेसु मुणंतु जिय तं मुणि अविचलु णाणु।।
    अर्थ -दर्शन का कारण (तथा) वस्तु के भेदों को जानता हुआ जो जीवों का स्पष्ट निश्चयात्मक (सद्बोधात्मक) ज्ञान है उसको (तू) अचल ज्ञान समझ।
    शब्दार्थ - दंसण-पुव्वु- दर्शन का कारण, हवेइ-है, फुडु -स्पष्ट, जं-जो, जीवहँ-जीवों का, विण्णाणु-निश्चयात्मक ज्ञान, वत्थु-विसेसु -वस्तु के भेद को, मुणंतु -जानता हुआ, जिय-हे जीव!, तं-उसको, मुणि - जान, अविचलु -स्थिर णाणु-ज्ञान।
  3. Sneh Jain
    आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि स्व दर्शन के बिना आत्मा का ध्यान संभव नहीं है, इसलिए सर्वप्रथम स्वदर्शन को जानना आवश्यक है। स्वदर्शन के विषय में वे कहते हैं कि जीवों का पदार्थ के भेद रहित सब पदार्थों का जो मुख्य ग्रहण है, वह ही स्व दर्शन है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    34.   सयल-पयत्थहँ जं गहणु जीवहँ अग्गिमु होइ।
          वत्थु-विसेस-विवज्जियउ तं णिय-दंसणु जोइ।।
    अर्थ - जीवों का पदार्थ के भेद रहित सब पदार्थों का जो मुख्य ग्रहण (अधिगम) है, उसको (तू)
          निज (स्व) दर्शन जान।
    शब्दार्थ - सयल-पयत्थहँ - समस्त पदार्थों का, जं -जो, गहणु -ग्रहण, जीवहँ -जीवों का, अग्गिमु -मुख्य, होइ-है, वत्थु-विसेस-विवज्जियउ-पदार्थ के भेद रहित, तं -उसको, णिय-दंसणु-निज दर्शन,  जोइ-समझ।
  4. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु पुनः इसी बात को दृढता के साथ कहते हैं कि रत्नत्रययुक्त आचरण के साथ आत्मा का ध्यान करनेवाले ज्ञानी निश्चय से मुक्ति को प्राप्त होते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
    33.   अप्पा गुणमउ णिम्मलउ अणुदिणु जे झायंति।
          ते पर णियमे ँ परम-मुणि लहु णिव्वाण लहंति।।
    अर्थ - जो प्रतिदिन विशुद्ध और गुणमय आत्मा का प्रतिदिन ध्यान करते हैं, मात्र वे (ही)  श्रेष्ठ मुनि निश्चय से शीघ्र मुक्ति को प्राप्त करते हैं।
    शब्दार्थ - अप्पा- आत्मा का, गुणमउ-गुणमय, णिम्मलउ-विशुद्ध,  अणुदिणु-प्रतिदिन, जे -जो, झायंति-ध्यान करते हैं, ते-वे, पर-मात्र, णियमे ँ-निश्चय से, परम-मुणि-श्रेष्ठ मुनि, लहु-शीघ्र, णिव्वाण -मुक्ति को, लहंति-प्राप्त करते हैं।
  5. Sneh Jain
    आचार्य योगिन्दु यहाँ मोक्षपद अर्थात शाश्वत शान्तिपद प्राप्ति की सही राह बताते हैं। वे कहते हैं कि जो व्यक्ति विशुद्ध रत्नत्रय से ही आत्मस्वरूप की प्राप्ति होना मानते हैं तथा मोक्षपद प्राप्ति के इच्छुक हैं वे ही अपनी आत्मा का ध्यान कर मोक्षपद प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार इस दोहे में योगिन्दुदेव ने मोक्षपद प्राप्ति का प्रथम सोपान रत्नत्रय को माना है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    32.   जे रयण-त्तउ णिम्मलउ णाणिय अप्पु भणंति।
          ते आराहय सिव-पयहँ णिय अप्पा झायंति।।
    अर्थ - जो ज्ञानी विशुद्ध रत्नत्रय को आत्मा बोलते हैं (और) मोक्षपद की आराधना करनेवाले हैं, वे 
         (ही) अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं।
    शब्दार्थ - जे - जो, रयण-त्तउ-रत्नत्रय को,  णिम्मलउ-निर्मल, णाणिय-ज्ञानी,  अप्पु-आत्मा, भणंति-बोलते हैं, ते- वे, आराहय-आराधना करनेवाले, सिव-पयहँ-मोक्षपद की, णिय-अपनी,  अप्पा- आत्मा का, झायंति-ध्यान करते हैं।
  6. Sneh Jain
    आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि सच्चे अर्थ में रत्नत्रय का आराधक वही है जिसका ध्येय मात्र एक गुणों का आवास आत्मा है। गुणनिधि आत्मा का ध्यान ही शुद्ध भावों का जनक है। व्यवहारिकरूप में भी यह देखा जाता है कि व्यक्ति का आन्तरिक विकास उसके शुद्ध भावों पर ही आधारित है जबकि बाहरी विकास मात्र दिखावे पर आधारित है। आन्तरिक विकास शाश्वत है जबकि बाहरी विकास क्षणिक और परिवर्तनशील है। आन्तरिक विकास से व्यक्ति सुख-दुःख से कम प्रभावित होता है जबकि बाहरी विकास जरा से दुःख में भी व्यक्ति को आहत कर देता है। इसीलिए रत्नत्रय के आराधकों का ध्येय आन्तरिक विकास का साधन मात्र एक आत्मा ही होती है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    31.  जो भत्तउ रयण-त्तयहँ तसु मुणि लक्खणु एउ।
         अप्पा मिल्लिवि गुण-णिलउ तासु वि अण्णु ण झेउ।।
    अर्थ -जो रत्नत्रय का शृद्धालु (आराधक)  है उसका यह लक्षण जान। गुणों के आवास, आत्मा   को छोड़कर उसका और दूसरा ध्येय नहीं है।
    शब्दार्थ - जो - जो, भत्तउ - आराधक, रयण-त्तयहँ - रत्नत्रय का, तसु- उसका, मुणि - जान, लक्खणु -लक्षण, एउ-यह, अप्पा-आत्मा को, मिल्लिवि - छोड़कर, गुण-णिलउ - गुणों के आवास, तासु- उसका,  वि - और, अण्णु -दूसरा, ण-नहीं, झेउ-ध्येय।
  7. Sneh Jain
    ज्ञान के विषय में संक्षेप में कथन करने के बाद आचार्य चारित्र के विषय में संक्षेप में कहते हैं कि स्वकीय शुद्ध भाव ही चारित्र है और यह चारित्र स्व और पर को समझन के बाद पर स्वभाव का त्याग करने पर फलित होता है। यह है आचार्य योगीन्दु की विचक्षणता। उन्होंने विशालकाय चारित्र को स्वकीय शुद्धभाव की नींव पर टिका दिया। स्वकीय शुद्धभाव की नींव पर टिका हुआ चारित्ररूपी महल का कथन कर शुद्ध चारित्र का निर्वाह बहुत आसान कर दिया। व्यक्ति प्रत्येक क्रिया अपने भाव से करता है। अतः शुद्धभावपूर्वक की गयी क्रिया शुद्ध ही होगी। अतः शुद्ध चारित्र का निर्वाह करने के लिए मात्र शुद्ध भावों का होना ही पर्याप्त है। अशुभ भाव से अशुभ क्रिया, शुभ भाव से शुभ क्रिया तथा वैसे ही शुद्ध भाव से शुद्ध क्रिया ही भाव व क्रिया की गणित है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    30.   जाणवि मण्णवि अप्पु परु जो पर-भाउ चएइ।
          सो णिउ सुद्धउ भावडउ णाणिहिं चरणु हवेइ।।
    अर्थ - जो स्व और पर (स्वभाव) को जानकर,(तथा) समझकर पर स्वभाव का त्याग करता है, ज्ञानियों में वह स्वकीय शुद्ध स्वभाव ही चारित्र होता है।
    शब्दार्थ - जाणवि -जानकर, मण्णवि-समझकर, अप्पु-स्व, परु-पर को, जो-जो, पर-भाउ-पर भाव का, चएइ- त्याग करता है, सो - वह, णिउ-स्वकीय, सुद्धउ-विशुद्ध, भावडउ-स्वभाव, णाणिहिं-ज्ञानियों में  चरणु-चारित्र, हवेइ-होता है।
  8. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु ज्ञान के विषय में कहते हैं कि जो द्रव्य जिस तरह स्थित है उसको जो उस ही प्रकार जानता है, आत्मा के जानने का वह सही स्वभाव ही ज्ञान है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    29.     जं जह थक्कउ दव्वु जिय तं तह जाणइ जो जि।
            अप्पहं केरउ भावडउ णाणु मुणिज्जहि सो जि।।29।।
    अर्थ - जो द्रव्य जिस तरह स्थित है (और) उसको जो (आत्मा) उस ही प्रकार जानता है, (उस) आत्मा के उस स्वभाव (सहज गुण) को ही तू ज्ञान समझ।
    शब्दार्थ - जं - जो, जह-जिस प्रकार, थक्कउ-स्थित, दव्वु -द्रव्य, जिय-हे जीव!, तं-उसको, तह-उसी प्रकार, जाणइ-जानता है, जो-जो, जि-ही, अप्पहं - आत्मा के, केरउ-सम्बन्धवाची परसर्ग, भावडउ-स्वभाव, णाणु -ज्ञान, मुणिज्जहि-समझ,  सो-उसको, जि-ही।
  9. Sneh Jain
    आचार्य योगिन्दु ने द्रव्यों के कथन के साथ पिछले दोहों में सम्यग्दर्शन के कथन को पूरा किया। अब वे सिद्धत्व की प्राप्ति के लिए सम्यग्ज्ञान व चारित्र का कथन करेंगे। इसी सूचनात्मक कथन से सम्बन्धित देखिये इनका अग्रिम दोहा -
    28.     णियमे ँ कहियउ एहु मइँ ववहारेण वि दिट्ठि।
           एवहि ँ णाणु चरित्तु सुणि जे ँ पावहि परमेट्ठि।।
    अर्थ -. नियमपूर्वक मेरे द्वारा व्यवहार (नय) से यह ही (सम्यक्) दर्शन कहा गया। अब तू ज्ञान और चरित्र को सुन, जिससे तू परम पूज्य (सिद्धत्व) को प्राप्त करे।
    शब्दार्थ -णियमे ँ -नियमपूर्वक, कहियउ-कहा गया, एहु -यह, मइँ-मेरे द्वारा, ववहारेण-व्यवहार से, वि-ही, दिट्ठि-दर्शन,  एवहि ँ - अब, णाणु -ज्ञान, चरित्तु -चरित्र को, सुणि -सुन, जे ँ - जिससे, पावहि - प्राप्त करे, परमेट्ठि- परमपूज्य ।
  10. Sneh Jain
    समस्त द्रव्यों के बारे में मूलभूत जानकारी देने के बाद आचार्य योगिन्दु स्पष्टरूप से कहते हैं कि प्रत्येक द्रव्य के मूल स्वभाव को समझकर ही दुःख व सुख के कारणों को समझा जा सकता है। तभी दुःख के कारणों से बचकर तथा सुख के कारणों में लगकर ही शान्ति के मार्ग से श्रेष्ठ लोक मोक्ष में जाया जा सकता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    27.     दुक्खहँ कारणु मुणिवि जिय दव्वहँ एहु सहाउ।
            होयवि मोक्खहँ मग्गि लहु गम्मिज्जइ पर-लोउ।।
    अर्थ - हे जीव! द्रव्यों के इस स्वभाव कोे दुःख का कारण जानकर मोक्ष के मार्ग में होकर शीघ्र परलोक जाया जाता है।
    शब्दार्थ - दुक्खहँ-दुःख का, कारणु-कारण, मुणिवि -जानकर, जिय-हे प्राणी! दव्वहँ - द्रव्य के, एहु-इस,  सहाउ-स्वभाव को, होयवि-होकर, मोक्खहँ -मोक्ष के, मग्गि - मार्ग में, लहु -शीघ्र, गम्मिज्जइ-जाया जाता है, पर-लोउ-परलोक।
  11. Sneh Jain
    द्रव्यों का संक्षिप्त में स्पष्टरूप से कथन करने के बाद आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि जीवों की क्रिया का कारण ये द्रव्य ही हैं। इन द्रव्यों के फलस्वरूप ही जीव विभिन्न प्रकार के कर्म करते हैं। इन कर्म के कारण ही जीव चारों गतियों के दुःखों को सहन करते हुए संसार में भ्रमण करते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित अग्रिम दोहा -
    26.     एयइँ दव्वइँ देहियहँ णिय-णिय-कज्जु जणंति।
            चउ-गइ-दुक्खु सहंत जिय ते ँ संसारु भमंति।।26।।
    अर्थ - ये द्रव्य जीवों के लिए अपने- अपने कार्य को उत्पन्न करते हैं। उस कारण से जीव चारों गतियों के दुःख को सहते हुए संसार में भ्रमण करते हैं।
    शब्दार्थ - एयइँ - ये, दव्वइँ-द्रव्य, देहियहँ-जीवों के लिए, णिय-णिय-कज्जु- अपने-अपने कार्य को, जणंति- उत्पन्न करते हैं, चउ-गइ-दुक्खु- चारों गतियों के दुःख को, सहंत-सहते हुए, जिय-जीव, ते ँ - उस कारण से, संसारु-संसार में, भमंति-भ्रमण करते हैं।
  12. Sneh Jain
    आचार्य योगिन्दु इन द्रव्यों की स्थिति के विषय में कहते हैं कि ये सभी द्रव्य लोकाकाश को धारण कर यहाँ संसार में एक में मिले हुए अपने-अपने गुणों में रहते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    25.       लोयागासु धरेवि जिय  कहियइँ  दव्वइँ जाइँ।
             एक्कहिं मिलियइँ इत्थु जगि सगुणहि णिवसहि ताइँ।।
    अर्थ - हे जीव! (ये) जो द्रव्य कहे गये हैं वे सब लोकाकाश को धारण कर यहाँ संसार में एक में मिले हुए निजी (आत्मीय)े गुणों में रहते हैं।
    शब्दार्थ - लोयागासु -लोकाकाश को, धरेवि-धारणकर, जिय-हे जीव!  कहियइँ -कहे गये हैं, दव्वइँ -द्रव्य, जाइँ-जो, एक्कहिं-एक में, मिलियइँ -मिले हुए, इत्थु-यहाँ, जगि-संसार में, सगुणहि ँ-निजि गुणों में, णिवसहि ँ-रहते हैं, ताइँ - वे सब।
  13. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु द्रव्यों के प्रदेशों के विषय में कहते हैं कि धर्म, अधर्म और जीव असंख्य प्रदेशी हैं, आकाश अनन्त प्रदेशी है तथा पुद्गल बहु प्रदेशी है। काल का कोई प्रदेश नहीं है। इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय में धर्म, अधर्म, जीव, आकाश और पुद्गल को सम्मिलित किया है, काल द्रव्य को नहीं किया। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    24.       धम्माधम्मु वि एक्कु जिउ ए जि असंख्य-पदेस।
             गयणु अणंत-पएस मुणि बहु-विह पुग्गल-देस।।
    अर्थ - धर्म, अधर्म और एक जीव इन (तीनों) को ही तू असंख्य प्रदेश, आकाश को अनन्त प्रदेश और पुद्गल का प्रदेश बहुत प्रकार का जान।
    शब्दार्थ - धम्माधम्मु- धर्म और अधर्म, वि -समुच्चय बोधक, एक्कु-एक, जिउ-जीव, ए -इनको, जि-ही, असंख्य-पदेस- असंख्य प्रदेश, गयणु आकाश को,  अणंत-पएस- अनन्त प्रदेश, मुणि- जान, बहु-विह-बहुत प्रकार, पुग्गल-देस- पुद्गल का प्रदेश।
  14. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु द्रव्यों के गमन और आगमन की क्रिया के सम्बन्ध में बताते हैं कि जीव व पुद्गल आवागमन करते हैं। जीव द्रव्य का चारों गतियों में आवागमन होता है और पुद्गल द्रव्य का भी जीव द्रव्य के द्वारा इधर. उधर होना देखा जाता है। इन दो द्रव्यों को छोड़कर बाकी अन्य चारों धर्म, अधर्म, आकाश व काल द्रव्य जीव व पुद्गल द्रव्य की भाँति आवागमन से रहित है। देखिये इससे सम्बन्धित परमात्मप्रकाश का आगे का दोहा -
    23.       दव्व चयारि वि इयर जिय गमणागमण-विहीण।
              जीउ वि पुग्गलु परिहरिवि पभणहि ँ णाण-पवीण।।
    अर्थ -   हे प्राणी! जीव और पुद्गल को छोड़कर  अन्य चारों ही द्रव्य (धर्म, अधर्म, आकाश, काल) जाने-आने से रहित हैं। ज्ञान में निपुण (ज्ञानी) (ऐसा) कहते हैं।
    शब्दार्थ - दव्व- द्रव्य, चयारि-चारों, वि-ही, इयर-अन्य, जिय-हे जीव!, गमणागमण-विहीण-जाने-आने से रहित, जीउ-जीव, वि-और, पुग्गलु-पुद्गल को, परिहरिवि- छोड़कर, पभणहि ँ-कहते हैं, णाण-पवीण- ज्ञान में निपुण।
  15. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि छः द्रव्यों में से जीव, पुद्गल व काल द्रव्य के अतिरिक्त धर्म, अधर्म व आकाश द्रव्य अपने प्रदेशों से अखंडित हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    22.   जीउ वि पुग्गलु कालु जिय ए मेल्लेविणु दव्व।।
          इयर अखंड वियाणि तुहुं अप्प-पएसहि ँ सव्व।।
    अर्थ - हे प्राणी!  तू जीव, पुदगल और काल इन (तीन) द्रव्यों को छोड़कर दूसरे अन्य सब (धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य) को अपने प्रदेशों से अखंडित (परिपूर्ण) समझ।
    शब्दार्थ - जीउ-जीव, वि-और, पुग्गलु -पुद्गल, कालु-काल को, जिय- प्राणी! ए-हे, मेल्लेविणु - छोड़कर, दव्व-द्रव्यों को, इयर-अन्य, अखंड-परिपूर्ण, वियाणि-जान, तुहुं -तू, अप्प-पएसहि ँ-आत्मप्रदेशों से सव्व-सव्व
  16. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि छः द्रव्यों में से जीव, पुद्गल व काल द्रव्य के अतिरिक्त धर्म, अधर्म व आकाश द्रव्य अपने प्रदेशों से अखंडित हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    22.   जीउ वि पुग्गलु कालु जिय ए मेल्लेविणु दव्व।।
          इयर अखंड वियाणि तुहुं अप्प-पएसहि ँ सव्व।।
    अर्थ - हे प्राणी!  तू जीव, पुदगल और काल इन (तीन) द्रव्यों को छोड़कर दूसरे अन्य सब (धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य) को अपने प्रदेशों से अखंडित (परिपूर्ण) समझ।
    शब्दार्थ - जीउ-जीव, वि-और, पुग्गलु -पुद्गल, कालु-काल को, जिय- प्राणी! ए-हे, मेल्लेविणु - छोड़कर, दव्व-द्रव्यों को, इयर-अन्य, अखंड-परिपूर्ण, वियाणि-जान, तुहुं -तू, अप्प-पएसहि ँ-आत्मप्रदेशों से सव्व-सव्व
  17. Sneh Jain
    आचार्य योगिन्दु काल द्रव्य के विषय में कहते हैं कि परावर्तन का हेतु ही काल द्रव्य है। मणियों की माला में जिस प्रकार प्रत्येक मणि का पार्थक्य है उसी प्रकार सृष्टि में विद्यमान काल के अणु भी प्रत्येक अणु से पार्थक्य लिए विद्यमान हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    21.   कालु मुणिज्जहि दव्वु तुहुँ वट्टण-लक्खणु एउ।
         रयणहँ रासि विभिण्ण जिम तसु अणुयहँ तह भेउ।।
    अर्थ - तू इस परावर्तन के हेतु को काल द्रव्य जान। रत्नों की जुदारूप राशि के समान उस (काल) के अणुओं का भी उसी प्रकार पार्थक्य(विभाजन)  है।
    कालु-काल, मुणिज्जहि-जान, दव्वु-द्रव्य, तुहुँ -तू, वट्टण-लक्खणु -परावर्तन के हेतु को, एउ-इस,     रयणहँ-रत्नों की, रासि-राशि, विभिण्ण-जुदा, जिम -के समान, तसु-उसके, अणुयहँ - अणुओं का, तह-उसी प्रकार, भेउ-पार्थक्य।
  18. Sneh Jain
    जीव, पुद्गल, धर्म व अधर्म द्रव्य के बाद आचार्य योगीन्दु आकाश द्रव्य के विषय में कहते हैं कि समस्त द्रव्य जिसमें भलीभाँति व्यवस्थित हैं वही आकाश द्रव्य है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    20.   दव्वइं सयलइँ वरि ठियइँ णियमे ँ जासु वसंति।                                         
          तं णहु दव्वु वियाणि तुहुँ जिणवर एउ भणंति।।
    अर्थ - समस्त द्रव्य जिसमें अच्छी तरह से व्यवस्थित रहते हैं, उसको तू निश्चयपूर्वक आकाश द्रव्य जान। जिनेन्द्रदेव यह कहते हैं।
    शब्दार्थ - दव्वइं-द्रव्य, सयलइँ -समस्त, वरि-अच्छी तरह से, ठियइँ-व्यवस्थित, णियमे ँ-निश्चयपूर्वक, जासु-जिसमें, वसंति-रहते हैं, तं - उसको, णहु -आकाश, दव्वु-द्रव्य, वियाणि-जान, तुहुँ-तू, जिणवर-जिनेन्द्रदेव, एउ-यह, भणंति-कहते हैं।
  19. Sneh Jain
    जीव द्रव्य के विषय में संक्षेप में कथन करने के बाद आचार्य योगिन्दु पुद्गल, धर्म व अधर्म द्रव्य के विषय में बताते हुए कहते हैं कि पुद्गल द्रव्य छः प्रकार के रूप से सहित होता है जबकि अन्य पाँचों द्रव्य रूप रहित होते हैं, तथा धर्म व अधर्म द्रव्य गति और स्थित का कारण है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
     19  पुग्गलु छब्विहु मुत्तु वढ इयर अमुत्तु वियाणि।
          धम्माधम्मु वि गयठियहँ कारणु पभणहि ँ णाणि।।
    अर्थ - हे वत्स! पुद्गल को छः प्रकार का रूपवाला (तथा) अन्य को रूप रहित जान। ज्ञानी   धर्म और अधर्म को विशेष रूप सेे गति और स्थित का कारण कहते हैं।
    शब्दार्थ - पुग्गलु- पुद्गल को, छब्विहु-छः प्रकार का,  मुत्तु-रूपवाला, वढ-हे वत्स, इयर-अन्य को, अमुत्तु -रूप रहित, वियाणि-जान, धम्माधम्मु-धर्म और अधर्म को, वि -विशेषरूप से, गयठियहँ - गति और स्थित का, कारणु-कारण,  पभणहि ँ -कहते हैं, णाणि-ज्ञानी।
  20. Sneh Jain
    छः द्रव्यों के नाम कथन के बाद आचार्य योगिन्दु प्रथम सचेतन जीव द्रव्य के स्वरूप के विषय में बताते हैं कि यह आत्मारूप जीवद्रव्य आकार रहित, ज्ञानमय, परम आनन्द स्वभाव, नित्य और निरंजन स्वरूप है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
    18.   मुत्ति-विहूणउ णाणमउ परमाणंद सहाउ।
          णियमिं जोइय अप्पु मुणि णिच्चु णिरंजणु भाउ।।
    अर्थ - हे योगी! आत्मा को तू निश्चय से आकार रहित, ज्ञानमय, परम आनन्द स्वभाव, नित्य और निरंजन स्वरूप जान।
    शब्दार्थ - मुत्ति-विहूणउ - आकार रहित, णाणमउ-ज्ञानमय, परमाणंद- परम आनन्द, सहाउ-स्वभाव,  णियमिं -नियम से, जोइय-हे योगी!, अप्पु-आत्मा को, मुणि-जान, णिच्चु-नित्य, णिरंजणु -निरंजन, भाउ-स्वरूप।
  21. Sneh Jain
    द्रव्य को ठीक तरह से जानना और उन पर श्रृद्धान करने को सम्यग्दर्शन का निमित्त बताने के बाद आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि इन द्रव्यों के विषय में जन्म-मरण से रहित हुए ज्ञानी जनों (केवलज्ञान को प्राप्त हुए तीर्थंकरों) ने बताया है। ये द्रव्य जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इस प्रकार छः हैं, जो सम्पूर्ण त्रिभुवन में व्याप्त हैं। इनमें जीव सचेतन द्रव्य तथा पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल अचेतन द्रव्य हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दो दोहे- 
    16.   दव्वइँ जाणहि ताइँ छह तिहुयणु भरियउ जेहिँ।
          आइ-विणास-विवज्जियहिँ णाणिहिं पभणियएहिँं।।
    अर्थ -उन छ द्रव्यों को जान, जिनसे यह त्रिभुवन भरा हुआ है। आवागमन और विनाश से रहित ऐसे ज्ञानियों (जिनेन्द्रदेवों ) के द्वारा इन द्रव्यों के विषय में कथन किया गया है। उनके अनुसार ये द्रव्य छः हैं।
    शब्दार्थ - दव्वइँ -द्रव्यों को, जाणहि -जान, ताइँ - उन, छह-छः, तिहुयणु -त्रिभुवन, भरियउ-भरा हुआ है, जेहिँ-जिनसे, आइ-विणास-विवज्जियहिँ -आवागमन और विनाश से रहित, णाणिहिं-- ज्ञानियों के द्वारा,  पभणिय -कहे गये हैं, एहिँ- ऐसे।
    17.   जीव सचेयणु दव्वु मुणि पंच अचेयण अण्ण।
          पोग्गलु धम्माहम्मु णहु काले ँसहिया भिण्ण।।  
  22. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु मोक्ष अर्थात् परमशान्ति का प्रथम निमित्त सम्यग्दर्शन को मानते हैं। सम्यग्दर्शन को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि आत्मा का वह भाव सम्यग्दर्शन है, जिस भाव से वह जगत में स्थित द्रव्यों को सही रूप में जानता है और सही रूप में श्रद्धान करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    15.   दव्वइँ जाणइ जहठियइँ तह जगि मण्णइ जो जि।
          अप्पहँ केरउ भावडउ अविचलु दंसणु सो जि।।
    अर्थ - जो द्रव्यों को जिस प्रकार (वे) जगत में स्थित हैं उसी प्रकार जानता है, (तथा) ठीक उसी प्रकार (विश्वासपूर्वक) मानता है, आत्मा का वह भाव ही अविचल (सम्यक्) दर्शन है।
    शब्दार्थ - दव्वइँ - द्रव्यों को, जाणइ -जानता है, जहठियइँ- जिस प्रकार स्थित हैं, तह-उसी प्रकार,  जगि-जग में,  मण्णइ-मानता है, जो-जो, जि-ठीक इसी प्रकार, अप्पहँ- आत्मा का, केरउ- सम्बन्धवाची परसर्ग, भावडउ-भाव, अविचलु-अविचल, दंसणु -दर्शन, सो-वह, जि-ही।
  23. Sneh Jain
    आचार्य योगिन्दु आगे मोक्षमार्ग के इन निमित्तों को समझाते हैं और इन निमित्तों को जानकर उनको पूरी तरह समझने से उनसे मिलने वाले फल को बताते हैं। वे कहते हैं कि जो स्व से स्व को देखता है, वह दर्शन है और जो स्व से स्व को जानता है, वह ज्ञान है (और) (स्व के) अनुकूल आचरण करता है, वह  चारित्र है। दर्शन, ज्ञान और चारित्र का सही ज्ञान होने पर ही पूरी तरह से पवित्र हुआ जा सकता है और अन्ततः वही मोक्ष है।
    देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे -
    13.     पेच्छइ जाणइ अणुचरइ अप्पिं अप्पउ जो जि।
           दंसणु णाणु चरित्तु जिउ मोक्खहँ कारणु सो जि।।
    अर्थ - हे जीव! जो स्व से स्व को देखता है, जानता है, (और) (स्व के) अनुकूल आचरण करता है, वह दर्शन, ज्ञान (और) चारित्र ही मोक्ष का कारण है।
    शब्दार्थ - पेच्छइ - देखता है, जाणइ-जानता है, अणुचरइ-अनुकूल आचरण करता है, अप्पिं-स्व से, अप्पउ -स्व को, जो-जो, जि- (पादपूर्ति हेतु प्रयुक्त अव्यय) दंसणु- दर्शन, णाणु-ज्ञान, चरित्तु -चारित्र, जिउ -हे जीव!, मोक्खहँ -मोक्ष का, कारणु -कारण, सो -वह, जि-ही।
    14.     जं बोल्लइ ववहारु-णउ दंसणु णाणु चरित्तु।
            तं परियाणहि जीव तुहुँ जे ँ परु होहि पवित्तु।।14।।   
    अर्थ - हे जीव! व्यवहार नय जिस दर्शन, ज्ञान और चारित्र का निर्देश करता है, उसको तू जान, जिससे तू पूरी तरह से पवित्र होवे।
    शब्दार्थ - जं - जिस, बोल्लइ-निर्देश करता है, ववहारु-णउ- व्यवहार नय, दंसणु- दर्शन, णाणु-ज्ञान, चरित्तु-चरित्र का, तं - उसको, परियाणहि-पूरी तरह से जान, जीव-हे जीव!  तुहुँ - तू, जे ँ-जिससे,  परु-पूरी तरह से,  होहि-होवे, पवित्तु-पवित्र।
  24. Sneh Jain
    अब तक आपने आत्मा के विषय में विस्तृतरूप से अध्ययन किया और अब आप  मोक्ष के विषय में जानकारी प्राप्त कर रहे हैं। मैं आपसे पूछना चाहती हूँ कि अब तक आचार्य योगिन्दु द्वारा रचित दोहों को पढकर आपने योगिन्दु आचार्य के विषय में क्या धारणा बनायी ? मेरी धारणा का जहाँ तक सवाल है मैं तो इतना ही जान पायी हूँ इन जैसे विशुद्ध अध्यात्मकार आचार्य की तुलना मैं किसी भी आचार्य से नहीं कर सकती। या यह कहूँ कि अब तक के अध्ययन किये ग्रंथों में मेरा सबसे प्रिय ग्रंथ आचार्य योगिन्दुदेव द्वारा रचित यह परमात्मप्रकाश ही रहा है। आत्मा की चर्चा हो या मोक्ष की, इनकी सोच का दायरा बहुत ही विस्तृत देखते हैं। इनके मोक्षपरक दोहों का सम्बन्ध किसी विशेष से नहीं होकर प्रत्येक जीव से रहा है। उनके अनुसार मोक्ष पर मात्र पुरुष, साधु या मानवजाति का ही अधिकार नहीे है, बल्कि मोक्ष अर्थात शान्ति तो प्रत्येक जीव एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक चाहता है। पिछले दोहे में उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि क्या बँधे हुए पशु भी बंधन के दुःख से छूटकर शान्ति पाना नहीं चाहते हैं। आत्मा और आत्मशान्ति का सम्बन्ध एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों से तथा चारों गतियों के जीवों से हैं। आप भी आचार्य योगिन्दु के अध्यात्मवाद के विषय में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कीजिए।
    आगे के दोहे में आचार्य ने श्रेष्ठ दर्शन, ज्ञान और चारित्र को ही मोक्ष के निमित्त बताये हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -

     
    12     जीवहँ मोक्खहँ हेउ वरु दंसणु णाणु चरित्तु।
            ते पुणु तिण्णि वि अप्पु मुणि णिच्छएँ एहउ वुत्तु।।
    अर्थ - जीवों के मोक्ष का कारण श्रेष्ठ दर्शन, ज्ञान (और) चारित्र है। फिर उन तीनों (दर्शन, ज्ञान, चारित्र) को ही आत्मा जानो, निश्चय से ऐसा कहा गया है।
    शब्दार्थ - जीवहँ - जीवों के, मोक्खहँ-मोक्ष का, हेउ-कारण, वरु-श्रेष्ठ, दंसणु-दर्शन, णाणु -ज्ञान, चरित्तु-चारित्र, ते-उन,  पुणु-फिर, तिण्णि-तीनों को, वि-ही, अप्पु-आत्मा, मुणि-जानो, णिच्छएँ -निश्चय से, एहउ-ऐसा, वुत्तु-कहा गया है।
  25. Sneh Jain
    मोक्ष के रूवरूप को जान लेने के बाद आचार्य योगीन्दु मोक्ष के परिणाम को बताते हैं। वे कहते हैं कि यह कैसे जाना जाये कि मोक्ष की प्राप्ति हो गयी है। इसके लिए वे मोक्ष प्राप्ति के परिणाम को बताते हुए कहते हैं कि मोक्ष प्राप्ति होने पर जीव के दर्शन, ज्ञान और अनन्त सुख एक साथ सदैव बने रहते हैं, वे कभी भी कम नहीं होते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
    11.     दंसणु णाणु अणंत-सुहु समउ ण तुट्टइ जासु।
            सो पर सासउ मोक्ख-फलु बिज्जउ अत्थि ण तासु।।
    अर्थ - जिसके दर्शन, ज्ञान (और) अनन्त सुख एक साथ (रहता है), घटता नहीं है, उसके लिए वह (ही) पूरी तरह से शाश्वत मोक्ष का फल है, दूसरा नहीं।
    शब्दार्थ - दंसणु -दर्शन, णाणु -ज्ञान, अणंत-सुहु -अनन्त सुख, समउ-एक साथ, ण-नहीं,  तुट्टइ -घटता है, जासु-जिसके, सो -वह, पर-पूरी तरह से, सासउ-शाश्वत, मोक्ख-फलु-मोक्ष का फल, बिज्जउ-दूसरा, अत्थि-है, ण-नहीं, तासु-उसके लिए।
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