Jump to content
फॉलो करें Whatsapp चैनल : बैल आईकॉन भी दबाएँ ×
JainSamaj.World

Sneh Jain

Members
  • Posts

    315
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    11

 Content Type 

Profiles

Forums

Events

Jinvani

Articles

दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

Downloads

Gallery

Blogs

Musicbox

Blog Entries posted by Sneh Jain

  1. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु स्पष्टरूप से कहते हैं कि जो अपने आपको बहुत बड़ा ज्ञानी मानते हैं, किन्तु वे विभिन्न आत्माओं में भेद करते हैं, वे सच्चे अर्थ में ज्ञानी है ही नहीं और उनको कभी भी अपनी निर्मल आत्मा का अनुभव नहीं हो सकता।। सच्चे अर्थ में वे ही ज्ञानी हैं और वे ज्ञानी ही अपनी निर्मल आत्मा का अनुभव करते हैं जो लोक में रहनेवाली आत्म में भेद नहीं करते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    99.    बंभहँ भुवणि वसंताहँ जे णवि भेउ करंति।
           ते परमप्प-पयासयर जोइय विमलु मुणंति।।
    अर्थ - 99.  जो लोक में रहती हुई आत्माओं का भेद नहीं करते हैं, वे परम आत्मा को व्यक्त करनेवाले योगी (ही) (अपनी) निर्मल आत्मा का अनुभव करते हैं।
    शब्दार्थ -बंभहँ - आत्माओं का, भुवणि-लोक में, वसंताहँ -रहती हुई, जे - जो, णवि-नहीं, भेउ -भेद, करंति-करते हैं, ते - वे, परमप्प-पयासयर -परम आत्मा का प्रकाश करनेवाले, जोइय-योगी, विमलु -निर्मल का, मुणंति-अनुभव करते हैं।
  2. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि यदि व्यक्ति को यह ज्ञान हो गया कि सभी जीवों का लक्षण ज्ञान और दर्शन है, इस लक्षण की अपेक्षा से सभी जीव समान है और यदि उनमें भेद हुआ है तो मात्र उसके कर्म के कारण।  जिसमें यह ज्ञान हो गया वह तो फिर वह किसी भी जीव में छोटे-बड़े का भेद नहीं करेगा। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -           
    98  जीवहँ लक्खणु जिणवरहिँ भासिउ दंसण-णाणु।
        तेण ण किज्जइ भेउ तहिँ जइ मणि जाउ विहाण।।
    अर्थ - जिनेन्द्रदेव के द्वारा जीवों का लक्षण (सम्यक्) दर्शन और ज्ञान कहा गया है, उस कारण से यदि मन में प्रभात (ज्ञानरूपी सूर्य का उदय) हो गया है तो उन (जीवों) में भेद नहीं किया जाता है।
    शब्दार्थ - जीवहँ-जीवों का, लक्खणु-लक्षण, जिणवरहिँ -जिनवर के द्वारा, भासिउ-कहा गया है, दंसण-णाणु-दर्शन और ज्ञान, तेण -इसलिए, ण-नहीं, किज्जइ-किया जाता है, भेउ-भेद, तहिँ -उनमें, जइ-यदि, मणि-मन में, जाउ-उत्पन्न हुआ है, विहाण-प्रभात।
  3. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि सभी जीव ज्ञानमय हैं, जन्म और मरण के बंधन से रहित हैं, जीव के प्रदेशों में समान हैं तथा सभी अपने-अपने गुणों में स्थित हैं। यदि इनमें भेद हुआ है तो मात्र अपने ही कर्म के कारण। वैसे सभी जीव मूल रूप में समान हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    97.    जीवा सयलु वि णाण-मय जम्मण-मरण-विमुक्क।
           जीव-पएसहिँ सयल सम सयल वि सगुणहिँ एक्क।।
    अर्थ - सभी जीव ही ज्ञानमय, जन्म-मरण के बन्धन से रहित (अपने- अपने) जीव के प्रदेशों में समान तथा सभी अपने गुणों में एक हैं।
    शब्दार्थ - जीवा - जीव, सयलु -सभी, वि-ही, णाण-मय-ज्ञानमय, जम्मण-मरण-विमुक्क  -जन्म और मरण के बंधन से रहित, जीव-पएसहिँ - जीवों के प्रदेशों में, सयल-सभी, सम-समान, सयल-सभी, वि-तथा, सगुणहिँ-अपने गुणों में, एक्क-एक।
  4. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु मानते हैं कि जब तक सभी जीवों को एक नहीं माना जायेगा तब तक संसार में शान्ति की स्थापना असंभव है। सुख और दुःख सभी स्तर के जीवों को होते हैं, सभी जीवों की मूलभूत आवश्यक्ताएँ समान हैं। जब तक किसी भी व्यक्ति कों इस सच्चाई का बोध नहीं होगा तब तक उसके द्वारा की गई क्रियाएँ निरर्थक होंगी उसके द्वारा की गई क्रियाएँ उसको स्वयं को ही संतुष्ट नहीं कर सकेंगी। जैसे ही उसे इस सच्चाई का बोध होगा उसकी प्रत्येक क्रिया जागरूकता से होने के कारण सार्थक होगी और वह स्वयं भी पूर्ण सन्तुष्ट होगा। मेरे समान सभी जीवों को सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है, ऐसा बोध हो जाने पर उसकी प्रत्येक क्रिया स्व और पर के हित से जुड़ी हुई होगी। आचार्य योगीन्दु का एक-एक दोहा इहलोक परलोक को सुदर बनाना सिखाता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    96.     जीवहँ तिहुयण-संठियहँ मूढा भेउ करंति।
           केवल-णाणिं णाणि फुडु सयलु वि एक्कु मुणंति।।
    अर्थ -त्रिभुवन में स्थित जीवों का अज्ञानी भेद करते हैं, (परन्त)ु ज्ञानी अपने केवलज्ञान से स्पष्टतः सभी को एक ही मानते हैं।
    शब्दार्थ - जीवहँ-जीवों का, तिहुयण-संठियहँ -त्रिभुवन में स्थित, मूढ-अज्ञानी, भेउ-भेद, करंति-करते हैं,  केवल-णाणिं-केवलज्ञान से, णाणि-ज्ञानी, फुडु-स्पष्टतः सयलु -सभी, वि-ही, एक्कु-एक, मुणंति-समझते हैं।
  5. Sneh Jain
    जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति में व्यक्ति के विकास के सोपान तीन रत्न, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही है। सर्वप्रथम अपनी दृष्टि निर्मल होने पर ही प्रत्येक वस्तु का सही रूप में बोध हो पाता है और जब बोध सही होता है तब वह बोध ही चारित्र में उतर पाता है। सही चारित्र ही व्यक्ति का सर्वोत्तम विकास है। इसलिए चारित्र तक पहुँचने के लिए सर्वप्रथम व्यक्ति की दृष्टि का निर्मल होना आवश्यक है। दृष्टि के निर्मल होने के बाद चारित्र का पालन कठिन नहीं है किन्तु दृष्टि का निर्मल होना बहुत कठिन है। इसीलिए जैन धर्म व दर्शन में सम्यग्दर्शन की चर्चा पग-पग पर मिलती है। आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों रत्नों का आराधक है वह सभी जीवों को समान मानता है वह अपने से दूसरे को भिन्न नहीं मानता है। देखें इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    95.   जो भत्तउ रयण-त्तयहँ तसु मुणि लक्खणु एउ।
         अच्छउ कहिँ वि कुडिल्लियइ सो तसु करइ ण भेउ।।
    अर्थ - जो रत्नत्रय का आराधक है, उसकी यह विशेषता है कि (जीव) किसी भी शरीर मे रहे, वह उस (जीव) का (अन्य जीव से) भेद नहीं करता है।
    शब्दार्थ - जो- जो, भत्तउ-आराधक, रयण-त्तयहँ -रत्नत्रय का, तसु-उसकी, मुणि-जानो, लक्खणु-विशेषता, एउ-यह, अच्छउ-रहे, कहिँ-किसी, वि-भी, कुडिल्लियइ-शरीर में, सो-वह, तसु-उसका, करइ करता है,ण-नहीं, भेउ-भेद।
  6. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि सर्वोच्च सत्य की खोज पर जो अग्रसर हुए हैं और जो अनुसंधान किया है वह है समभाव। इस समभावरूप सर्वोच्च सत्य की खोल कर लेने पर उनके लिए कोई भी छोटा और बड़ा नहीं होता है। सभी जीवों की आत्मा उनके लिए परम आत्मा होती है। सर्वोच्च सत्य के अनुभवी ही सर्वोदय का कार्य कर ते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    94.    बुज्झंतहँ परमत्थु जिय गुरु लहु अत्थि ण कोइ।
          जीवा सयल वि बंभु परु जेण वियाणइ सोइ।।

     
    अर्थ - हे जीव! सर्वोच्च सत्य को समझते हुओं के (लिए) कोई भी बड़ा (और) छोटा नहीं है, क्योंकि (उसके लिए) सभी ही जीव परम आत्मा हैं। (ऐसा) वह (सर्वोच्च सत्य को समझने वाला ) ही अनुभव करता है। 
    शब्दार्थ - बुज्झंतहँ - समझते हुओं के, परमत्थु -परम सत्य को, जिय-हे जीव! गुरु -बड़ा, लहु-छोटा,  अत्थि-है, ण-नहीं, कोइ-कोई भी, जीवा-जीव, सयल-सभी, वि-ही, बंभु-आत्मा, परु-परम, जेण-क्योंकि, वियाणइ-अनुुभव करता है, सोइ-वह ही।
  7. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि सामान्य व्यक्ति सत्य को समझ पाये यह बहुत मुश्किल है किन्तु उन मुनिराजों के लिए भी सत्य को समझ पाना उतना ही नामुमकिन है जो धन धान्य आदि बाह्य तथा क्रोध आदि आन्तरिक परिग्रह के कारण स्वयं को बड़ा मानते हैं। देखिये इससे सम्बन्धि आगे का दोहा - ,
    93  अप्पउ मण्णइ जो जि मुणि गरुयउ गंथहि तत्थु।
        सो परमत्थे जिणु भणइ णवि बुज्झइ परमत्थु।।
    अर्थ - जो भी मुनि (धन धान्य आदि बाह्य तथा क्रोध आदि आन्तरिक) परिग्रह के कारण स्वयं को वास्तव (में) बड़ा मानता है, वह वास्तव में सत्य को नहीं जानता है, (ऐसा) जिनदेव कहते हैं।
    शब्दार्थ - अप्पउ-स्वयं को, मण्णइ-समझता है, जो -जो, जि-भी, मुणि -मुनि, गरुयउ-बड़ा, गंथहि - आन्तरिक व बाहरी परिग्रह से, तत्थु-वास्तव, सो -वह, परमत्थे-वास्तव में, जिणु -जिनदेव, भण्-कहते हैं, णवि -नहीं, बुज्झइ-समझता है, परमत्थु-सत्य को।
  8. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि यश लाभ की इच्छा ही व्यक्ति के विकास में बाधा है। चाहे गृहस्थ हो या मुनि यदि वह यश लाभ की इच्छा रहित होकर काम करे तो उसका काम स्व और पर दोनों के लिए हितकारी होगा। यश व लाभ की इच्छा से किये काम से अपना लक्ष्य पूरा नहीं होने पर काम के प्रति किया श्रम व समय व्यर्थ हो जाता है और यश के बदले में अपयश ही मिलता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 
    92     लाहहँ कित्तिहि कारणिण जे सिव-मग्गुु चयंति।
          खीला-लग्गिवि ते वि मुणि देउल्लु देउ डहंति।।     
    अर्थ - जो मुनि यश लाभ के प्रयोजन से मोक्ष मार्ग को छोड़ देते हैं, वे ही मुनि खंभे से लगकर देव (और) देवालय को पूर्णरूप से नष्ट करते हैं।
    शब्दार्थ - लाहहँ - लाभ क, ,कित्तिहि-यश के, कारणिण-प्रयोजन से, जे-जो, सिव-मग्गुु -मोक्ष मार्ग को, चयंति-छोड़ देते हैं, खीला-लग्गिवि -खंभे से लगकर, ते-वे, वि -ही, मुणि-मुनि, देउल्लु-देवालय, देउ -देव को, डहंति-पूर्णरूप से नष्ट करते हैं।
  9. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी मुनिराजों के प्रति बहुत स्नेह रखते हैं। वे चाहते हैं कि जिस मोक्ष मार्ग की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठिन चर्या अपनायी है वह छोटी- छोटी आसक्तियों में व्यर्थ नहीं हो जावे और कहीं वे अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकें। इसीलिए वे कहते हैं कि मुनिराज ने मुनिराज अवस्था से पूर्व परिग्रह त्याग करके मुनिराज पद धारण किया है, और अब वे मुनि अवस्था ग्रहण कर पुनः परिग्रह रखते हैं तो वह वैसा ही है जैसे परिग्रहरूप वमन का त्याग करके पुनः उस त्यागे हुए परिग्रहरूप वमन को अंगीकार करे। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    91.   जे जिण-लिंगु धरेवि मुणि इट्ठ-परिग्गह लेंति।
          छद्दि करेविणु ते जि जिय सा पुणु छद्दि गिलंति।।
    अर्थ -हे जीव! जो मुनि जिन वेष को धारण करके इच्छित  परिग्रह (घन आदि को) ग्रहण करते हैं, वे  (मुनि) वमन करके उस ही वमन को फिर से निगलते हैं।
    शब्दार्थ - जे -जो, जिण-लिंगु -जिनवर के वेश को, धरेवि-धारण करके, मुणि-मुनि, इट्ठ-परिग्गह-इच्ठित परिग्रह को, लेंति-ग्रहण करते हैं, छद्दि -वमन, करेविणु-करके, ते-वे, जि-ही, जिय-हे जीव! सा- उसको ही, पुणु-फिर से, छद्दि-वमन को, गिलंति-निगलते हैं।
  10. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु एक उच्च कोटि के अध्यात्मकार तो हैं ही साथ में बहुत संवेदनशील भी हैं। वे अपने साधर्मी बन्धु मुनिराजों के प्रति बहुत संवेदनशील है। वे कहते हैं कि जिनवर भेष धारण करना और केश लोंच जैसे कठिन कार्य करके भी मात्र एक परिग्रह त्याग जैसे सरल कार्य को नहीं अंगीकार किया गया तो उसने स्वयं ने ही अपनी आत्मा को ठग लिया और फिर जिस प्रयोजन से उन्होंने जिस कठिन मार्ग को अपनाया था वह व्यर्थ हो गया। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    90.   केण वि अप्पउ वंचियउ सिरु लुंचिवि छारेण।
          सयल वि संग ण परिहरिय जिणवर-लिंगधरेण।।
    अर्थ - जिनवर भेेष धारण करनेवाले किसी के भी द्वारा भस्म से सिर मूंडकर भी समस्त परिग्रह नहीं छोड़ा गया (तो समझ) (उसके द्वारा) (अपनी) आत्मा ठग ली गयी है।
    शब्दार्थ - केण-किसी के द्वारा, वि-भी, अप्पउ-आत्मा, वंचियउ-ठग ली गयी है, सिरु-सिर को, लुंचिवि -मुंडन करके,छारेण-भस्म से, सयल-समस्त, वि -ही, संग-परिग्रह, ण -नहीं, परिहरिय-छोड़ा गया, -जिणवर-लिंगधरेण - जिनवर के वेश को धारण करनेवाले के द्वारा  
  11. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि मुनि भौतिक सुखों को त्यागकर श्रेष्ठ आत्मसुख की साधना में लगे हुए हैं। उनकी आत्मसुख साधना निरन्तर बढ़े इसमें श्रावकों का बहुत बड़ा सहयोग होना चाहिए। श्रावकों को मुनिराज के पास बैठकर उनसे धर्म साधना का मार्ग, गृहस्थ जीवन जीने का तरीका सीखना चाहिए और उनकी साधना में आहार, शास्त्र, औषध व अभयदान देकर सहयोगी बनना चाहिए। ना ही श्रावकों को मुनिराज के साथ राग का सम्बन्ध जोड़ना चाहिए और ना ही मुनिराज को अपने शिष्यों, सिंहासन, कमंडल व चेले चेलियों के प्रति आसक्ति रखनी चाहिए। ऐसा नहीं करने से श्रावक व साधु दोनों ही कुमार्ग में लग जाते हैं और उनका मानव जीवन व्यर्थ हो जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 
    89.   चट्टहि ँ पट्टहि ँ कुंडयहि ँ चेल्ला-चेल्लियएहि ँ।
          मोहु जणेविणु मुणिवरहँ उप्पहि पाडिय तेहि ँ।।
    अर्थ - उन शिष्यों, सिंहासनो, कमंडलों (तथा) चेले-चेलियों के द्वारा मुनिवरों के लिए मोह पैदा कर (वे मुनिवर) कुमार्ग में गिराये गये हैं।
    शब्दार्थ - चट्टहि ँ -शिष्यों से, पट्टहि ँ - सिंहासनों से, कुंडयहि ँ -कमंडलों से, चेल्ला-चेल्लियएहि ँ- चेले-चेलियों के द्वारा, मोहु-मोह, जणेविणु-पैदा कर, मुणिवरहँ - मुनिवरों के लिए, उप्पहि-कुमार्ग में, पाडिय-गिराये गये हैं, तेहि ँ-उन।
  12. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि मुनि भौतिक सुखों को त्यागकर श्रेष्ठ आत्मसुख की साधना में लगे हुए हैं। उनकी आत्मसुख साधना निरन्तर बढ़े इसमें श्रावकों का बहुत बड़ा सहयोग होना चाहिए। श्रावकों को मुनिराज के पास बैठकर उनसे धर्म साधना का मार्ग, गृहस्थ जीवन जीने का तरीका सीखना चाहिए और उनकी साधना में आहार, शास्त्र, औषध व अभयदान देकर सहयोगी बनना चाहिए। ना ही श्रावकों को मुनिराज के साथ राग का सम्बन्ध जोड़ना चाहिए और ना ही मुनिराज को अपने शिष्यों, सिंहासन, कमंडल व चेले चेलियों के प्रति आसक्ति रखनी चाहिए। ऐसा नहीं करने से श्रावक व साधु दोनों ही कुमार्ग में लग जाते हैं और उनका मानव जीवन व्यर्थ हो जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 
    89.   चट्टहि ँ पट्टहि ँ कुंडयहि ँ चेल्ला-चेल्लियएहि ँ।
          मोहु जणेविणु मुणिवरहँ उप्पहि पाडिय तेहि ँ।।
    अर्थ - उन शिष्यों, सिंहासनो, कमंडलों (तथा) चेले-चेलियों के द्वारा मुनिवरों के लिए मोह पैदा कर (वे मुनिवर) कुमार्ग में गिराये गये हैं।
    शब्दार्थ - चट्टहि ँ -शिष्यों से, पट्टहि ँ - सिंहासनों से, कुंडयहि ँ -कमंडलों से, चेल्ला-चेल्लियएहि ँ- चेले-चेलियों के द्वारा, मोहु-मोह, जणेविणु-पैदा कर, मुणिवरहँ - मुनिवरों के लिए, उप्पहि-कुमार्ग में, पाडिय-गिराये गये हैं, तेहि ँ-उन।
  13. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु ज्ञानी व अज्ञानी मुनि की क्रिया में मुख्यरूप से भेद करते हैं कि अज्ञानी मुनि निःसंदेह चेला, चेली और पुस्तकों से खुश होता है, किन्तु ज्ञानी मुनि इनको बंधन का कारण जानता हुआ इनसे लज्जित होता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    88.  चेल्ला-चेल्ली-पुत्थियहि ँ तूसइ मूढु णिभंतु।
         एयहि ँ लज्जइ णाणियउ बंधहँ हेउ मुणंतु।।
    अर्थ - अज्ञानी (मुनि) निःसंदेह चेला, चेली और पुस्तकों से खुश होता है, किन्तु ज्ञानी (इनको) बंधन का कारण जानता हुआ इनसे लज्जित होता है।
    शब्दार्थ - चेल्ला-चेल्ली-पुत्थियहि ँ - चेला,चेली और पुस्तकों से, तूसइ -खुश होता है, मूढु-अज्ञानी,  णिभंतु-निस्सन्देह, एयहि ँ -इनसें, लज्जइ-लज्जित होता है, णाणिय-ज्ञानी, उ-किन्तु, बंधहँ -बंधन का, हेउ-कारण, मुणंतु-जानता हुआ।
  14. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु ज्ञानी और मूर्ख मुनि में ज्ञानी मुनि का  यह लक्षण बताने के बाद कि ज्ञानी मुनि देह कोे आत्मा से भिन्न मानता हुआ देह के प्रति आसक्ति को छोड़ देता है, अज्ञानी मुनि का लक्षण बताते हैं कि अज्ञानी मुनि बहुत प्रकार के धर्म के बहाने से इस समस्त जगत को ही प्राप्त करने के लिए इच्छा करता है। ज्ञानी और अज्ञार्नी मुनि में यह ही भेद है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    87. लेणहँ इच्छइ मूढु पर भुवणु वि एहु असेसु।
        बहु विह-धम्म-मिसेण जिय दोहि ँ वि एहु विसेसु।।
    अर्थ - किन्तु अज्ञानी मुनि बहुत प्रकार के धर्म के बहाने से इस समस्त जगत को ही प्राप्त करने के लिए इच्छा करता है, हे जीव! इन दोनों (ज्ञानी और अज्ञार्नी मुनि) में यह ही भेद है।
    शब्दार्थ -लेणहँ - प्राप्त करने के लिए, इच्छइ-इच्छा करता है, मूढु-अज्ञानी, पर - किन्तु, भुवणु - जगत को, वि-ही, एहु-इस, असेसु-समस्त, बहु विह-धम्म-मिसेण- बहुत प्रकार के धर्म के बहाने से,  जिय- हे जीव!  दोहि ँ - दोनों में, वि- ही, एहु- यह, विसेसु- भेद।
  15. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु ज्ञानी व मूर्ख मुनियों में भेद करते हुए ज्ञानी मुनि का लक्षण बताते हैं कि ज्ञानी मुनि देह कोे आत्मा से भिन्न मानता हुआ देह के प्रति आसक्ति को छोड़ देता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    86.  णाणिहि ँ मूढहँ मुणिवरहँ अंतरु होइ महंतु।
        देहु वि मिल्लइ णाणियउ जीवहँ भिण्णु मुणंतु।। 86।।
    अर्थ -ज्ञानी (मुनिवरों) में मूर्ख मुनिवरों से बहुत बड़ा भेद होता है। ज्ञानी देह कोे आत्मा से भिन्न मानता हुआ देह (देह के प्रति आसक्ति) को छोड़ देता है।
    शब्दार्थ - णाणिहि ँ -ज्ञानी में, मूढहँ -मूर्ख, मुणिवरहँ- मुनिवर में,  अंतरु - भेद, होइ - होता है, महंतु-बहुत बड़ा, देहु-देह को, वि-भी, मिल्लइ-छोड़ देता है, णाणियउ -ज्ञानी, जीवहँ - जीव से, भिण्णु - भिन्न, मुणंतु -मानता हुआ।
  16. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि मुनि के जीवन का उद्देश्य मुक्ति प्राप्त करना होता है। यदि मुनि के जीवन का उद्देश्य मुक्ति प्राप्त करना नहीं है तो वह सच्चे अर्थ में मुनि है ही नहीं, और यह मुक्ति, मुक्ति दायक ज्ञान से ही संभव है। मात्र एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में भ्रमण कर लेने मात्र को मुुक्ति मान लेना मुनि का मात्र एक भ्रम है।  देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    85.  तित्थइँ तित्थु भमंताहँ मूढहँ मोक्खु ण होइ।
         णाण-विवज्जिउ जेण जिय मुणिवरु होइ ण सोइ।।
    अर्थ - हे जीव! (एक) तीर्थ (से) दूसरे तीर्थों को भ्रमण करते हुए मूर्ख (मुनि) कीे मुक्ति नहीं होती, क्योंकि ज्ञान से रहित वह श्रेष्ठ मुनि होता ही नहीं है। 
    शब्दार्थ - तित्थइँ-तीर्थों को, तित्थु -तीर्थ, भमंताहँ-भ्रमण करते हुए, मूढहँ-मूर्ख की, मोक्खु -मुक्ति, ण-नहीं, होइ-होती, णाण-विवज्जिउ-ज्ञान से रहित, जेण -क्योंकि, जिय- हे जीव!, मुणिवरु -श्रेष्ठ मुनि, होइ-होता है, ण -नहीं, सोइ- वह, ही
  17. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जो व्यक्ति किसी प्रयोजन या उद्देश्य को लेकर कार्य करते हैं तो वे अपना प्रयोजन पूरा होने पर संतुष्ट हो पाते हैं जब कि प्रयोजन रहित कार्य मात्र समय गुजारना होता है। जैसे शास्त्र का अध्ययन बोध प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाये तो बोध प्राप्ति होने से उससे जो सन्तुष्टि मिलती है वही जीवन का सच्चा आनन्द है। किन्तु यदि मात्र समय गुजारने के लिए बिना बोध प्राप्ति के उद्देश्य से मात्र शास्त्रों का वाचन एक मूर्खता ही है, क्योंकि उससे सन्तुष्टि नहीं मिलती हे। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    84. बोह-णिमित्ते ँ सत्थु किल लोइ पढिज्जइ इत्थु।
        तेण वि बोहु ण जासु वरु सो किं मूढु ण तत्थु।।
    अर्थ - निश्चय ही बोध के प्रयोजन से यहाँ लोक में शास्त्र पढ़ा जाता है, (किन्तु) जिसके उस (शास्त्र पठन) से भी उत्तम बोध (उत्पन्न) नहीं हो (तो) क्या वह वास्तविक (वास्तव में) मूर्ख नहीं है ?
    शब्दार्थ - बोह-णिमित्ते ँ- बोध के प्रयोजन से, सत्थु-शास्त्र, किल-निश्चय ही, लोइ-लोक में, पढिज्जइ -पढा जाता है, इत्थु-यहाँ, तेण-उससे, वि-भी, बोहु-बोध, ण-नहीं, जासु-जिसके, वरु-उत्तम, सो-वह, किं -क्या, मूढु-मुर्ख, ण-नहीं, तत्थु-वास्तविक।
  18. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि यदि व्यक्ति ज्ञानी होना चाहता है, अपनी परम आत्मा को पहचानना चाहता है तो उसके लिए उसे सबसे पहले अपने मन में उठने वाले व्यर्थ विकल्पों को नष्ट करना होगा, अन्यथा वह कितने ही ग्रंथों का अध्ययन कर लें सब व्यर्थ है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    83.  सत्थु पढंतु वि होइ जडु जो ण हणेइ वियप्पु।
         देहि वसंतु वि णिम्मलउ णवि मण्णइ परमप्पु ।।
    अर्थ -जो शास्त्र को पढ़ता हुआ भी (अपनी) विविध तरह की कल्पना (सन्देह) को नष्ट नहीं करता,, वह मूर्ख (विवेक शून्य) होता है, (तथा) (वह) देह में रहती हुई निर्मल परमआत्मा का भी विचार (विश्वास) नहीं करता।
    शब्दार्थ - सत्थु-शास्त्र को, पढंतु-पढता हुआ, वि-भी, होइ-होता है, जडु-मूर्ख, जो-जो, ण-नहीं, हणेइ-नष्ट करता है, वियप्पु-विविध तरह की कल्पनाओं को, देहि-देह में, वसंतु -बसती हुई,,वि-भी, णिम्मलउ-निर्मल, णवि-नहीं, मण्णइ-विचार करता है, परमप्पु-परम आत्मा का।
  19. Sneh Jain
    हमने पूर्व में देखा कि आसक्ति से मुक्ति में ही कर्मों से मुक्ति है। आगे इसी बात को आगे बढाते हुए आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि कर्मों से मुक्ति के लिए सत्य को जानना आवश्यक है क्योंकि सत्य को जानने के बाद ही आसक्ति का त्याग सरलता से हो सकता है। सत्य को समझकर आसक्ति के त्याग के बिना शास्त्रों का अघ्ययन व तप करना भी व्यर्थ है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    82.    बुज्झइ सत्थइँ तउ चरइ पर परमत्थु ण वेइ।
           ताव ण मुंचइ जाव णवि इहु परमत्थु मुणेइ।।
    अर्थ -(जो) शास्त्रों को समझता है (और) तप का आचरण करता है किन्तु सत्य को नहीं जानता, (वह) जब तक यहाँ (इस जगत में )सत्य को नहीं जानता तब तक (वह) (कर्मों से) मुक्त नहीं किया जा सकता।
    शब्दार्थ - बुज्झइ - जानता है, सत्थइँ-शास्त्रों को, तउ-तप का, चरइ-आचरण करता है, पर-किन्तु, परमत्थु-परमार्थ को, ण -नहीं, वेइ-जानता, ताव-तब तक, ण-नहीं, मुंचइ-मुक्त किया जा सकता, जाव -जब तक, णवि -नहीं, इहु -यहाँ, परमत्थु- सत्य को, मुणेइ-जानता है।
  20. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु ने कर्मों से मुक्ति प्राप्त करने के इच्छुक लोगों के लिए बहुत ही सहज और वह भी एक ही मार्ग बताया है कि आसक्ति से मुक्त हो जाओ, कर्मों से मुक्ति मिलेगी और जीवन में शाश्वत सुख व शान्ति लहरा उठेगी। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    81.    जो अणु-मेत्त वि राउ मणि जाम ण मिल्लइ एत्थु।
           सो णवि मुच्चइ ताम जिय जाणंतु वि परमत्थु।।
    अर्थ - यहाँ पर (इस जगत में) जब तक जो जीव अणु मात्र भी मन में (स्थित) आसक्ति को नहीं छोड़ता है, तब तक वह परमार्थ (सत्य) को जानता हुआ भी (कर्मों से) मुक्त नहीं किया जा सकता है।
    शब्दार्थ - जो-जो, अणु-मेत्त-अणु मात्र, वि -भी, राउ-आसक्ति को, मणि-मन में,  जाम-जब तक, ण -नहीं, मिल्लइ-छोड़ता, एत्थु-यहाँ पर, सो -वह, णवि-नहीं, मुच्चइ-मुक्त किया जा सकता, ताम-तब तक, जिय-जीव, जाणंतु-जानता हुआ, वि-भी, परमत्थु-परमार्थ को।
  21. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जो आसक्ति रहित होकर अपने कर्मों के फल को भोगता है उसके कर्मों का बंध नहीं होता तथा पूर्व में किये कर्म बन्ध भी नष्ट हो जाते है। कर्म बंध ही दु.ख का फल है। अतः आसक्ति रहित कर्म करना ही मानव की श्रेष्ठ जीवन कला है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -  
    80.   भुंजंतु वि णिय-कम्म-फलु जो तहिं राउ ण जाइ।
          सो णवि बंधइ कम्मु पुणु संचिउ जेण विलाइ।।
    अर्थ -  जो अपने कर्मफल को भोगता हुआ भी उनमें आसक्ति उत्पन्न नहीं करता, वह फिर से कर्म को नहीं बाँधता, जिससे (उसके द्वारा ) संचित किया हुआ (कर्म भी) नष्ट हो जाता है।
    शब्दार्थ - भुंजंतु- भोगता हुआ, वि-भी, णिय-कम्म-फलु-अपने कर्म फल को, जो - जो, तहिं - उनमें, राउ- आसक्ति, ण-नहीं, जाइ-उत्पन्न करता है, सो-वह, णवि-नहीं, बंधइ -बांधता है, कम्मु-कर्म को, पुणु -फिर, संचिउ-संचित किया हुआ, जेण-जिससे, विलाइ-नष्ट हो जाता है।
    ( बन्धुओं, आचार्य योगीन्दु  द्वारा रचित इस परमात्मप्रकाश ग्रंथ के अध्ययन से आप को कैसा अनुभव हो रहा है ? आपकी प्रतिक्रिया जानकर प्रसन्नता होगी।)
  22. Sneh Jain
    आचार्य यागीन्दु कहते हैं कि जो मोह के वशीभूत होकर अच्छे और बुरे भाव करते हैं वे निरन्तर कर्म बंघ करते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    79.   भुंजंतु वि णिय-कम्म-फलु मोहइँ जो जि करेइ।
          भाउ असुंदरु सुंदरु वि सो पर कम्मु जणेइ।।
    अर्थ - जो अपने कर्म फल को भोगता हुआ भी मोह से अच्छा और बुरा भाव करता है, वह आगे (पुनः) कर्म उत्पन्न (नवीन कर्म बन्ध) करता है।
    शब्दार्थ - भुंजंतु- भोगता हुआ, वि-भी, णिय-कम्म-फलु -अपने कर्म फल को, मोहइँ-मोह से, जो-जो, (जि - पादपूर्ति हेतु प्रयुक्त) करेइ-करता है, भाउ -भाव, असुंदरु-बुरा, सुंदरु-अच्छा, वि-और, सो-वह, पर-आगे का, कम्मु-कर्म, जणेइ-उत्पन्न करता है।
  23. Sneh Jain
    पूर्व कथित बात को आगे बढ़ाते हुए आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जिसने एक बार सर्व सुंदर आत्मा से आत्मसात कर लिया है उसको फिर आत्मा को छोड़कर कोई पर वस्तु प्रिय नहीं लगती। जिस प्रकार मरकतमणि की प्राप्ति के बाद काँच कौन लेना चाहेगा। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
    78.   अप्पा मिल्लिवि णाणमउ चित्ति ण लग्गइ अण्णु ।
          मरगउ जेँ परयाणियउ तहुँ कच्चे ँ कउ गण्णु।।
    अर्थ -(ज्ञानियों के) ज्ञानमय चित्त में आत्मा को छोड़कर दूसरी (वस्तु) सम्मिलित नहीं होती। जिसके द्वारा मरकतमणि जान ली गई है, उसके लिए काँच से किस लिए प्रयोजन ?
    शब्दार्थ - अप्पा-आत्मा को, मिल्लिवि -छोड़कर, णाणमउ-ज्ञानमय, चित्ति-चित्त में, ण-नहीं,  लग्गइ-सम्मिलित होती है, अण्णु-दूसरी, मरगउ-मरकत मणि, जेँ - जिसके द्वारा, परयाणियउ-जान ली गयी, तहुँ - उसके लिए, कच्चे ँ -काँच से, कउ-किस लिए, गण्णु-प्रयोजन।

     
  24. Sneh Jain
    आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि ज्ञानी का लगाव आत्मा से ही है और आत्मा का सौन्दर्य शील और सदाचरण में ही है। अतः ज्ञानी का मन शील और सौन्दर्य को नष्ट करनेवाले विषयों में रमण नहीं करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    77.   अप्पा मिल्लिवि णाणियहँ अण्णु ण सुंदरु वत्थु।
          तेण ण विसयहँ मणु रमइ जाणंतहँ परमत्थु।।
    अर्थ -ज्ञानियों के लिए आत्मा को छोड़कर दूसरी वस्तु सुंदर नहीं हैॅ, इसलिए परमार्थ (सत्य) को     जानते हुए (ज्ञानियों) का मन विषयों में रमण नहीं करता है।
    शब्दार्थ - अप्पा-आत्मा को, मिल्लिवि -छोड़कर, णाणियहँ -ज्ञानियों के लिए, अण्णु- दूसरी, ण-नहीं,  सुंदरु-सुंदर, वत्थु-वस्तु, तेण-इसलिए, ण-नहीं, विसयहँ - विषयों में, मणु -मन, रमइ -रमण करता है, जाणंतहँ - जानते हुए का, परमत्थु-परमार्थ को।
  25. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि स्व-बोध होने पर दुःखों का जनक राग समाप्त हो जाता है जिस प्रकार सूर्य की किरणों के आगे अन्धकार नहीं ठहरता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    76.   तं णिय-णाणु जि होइ ण वि जेण पवड्ढइ राउ।
         दिणयर -किरणहँ पुरउ जिय किं विलसइ तम-राउ।।
    अर्थ -हे जीव! वह स्व-बोध होता ही नहीे है, जिससे राग बढ़ता है। सूर्य की किरणों के आगे क्या अन्धकार का फैलाव सुशोभित होता है ?
    शब्दार्थ - तं - वह, णिय-णाणु- स्व बोध, जि-ही, होइ -होता है, णवि-नहीं, जेण -जिससे, पवड्ढइ-बढता है, राउ-राग, दिणयर -किरणहँ -सूर्य की किरणों के, पुरउ-आगे, जिय-हे जीव! किं -क्या, विलसइ-सुशोभित होता है तम-राउ- अंधकार का फैलाव।
×
×
  • Create New...