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Sneh Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. Sneh Jain
    पुनः आगे के चार दोहों में ज्ञानी अर्थात् मुनि की विशेषता बताते हुए आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि ज्ञानी आन्तरिक व बाहरी परिग्रह से भिन्न आत्म स्वभाव को जान लेता है तथा काम भोगों से भिन्न आत्म स्वभाव को जान लेता है, अतः वह अंतरंग एवं बाहरी परिग्रह के ऊपर द्वेष और राग नहीं करता और ना ही काम भोग विषयक पदार्थों के ऊपर राग द्वेष करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - दोहे का अर्थ  सरल होने के कारण विश्लेषण नहीं किया जा रहा है।
    49.   गंथहँ उप्परि परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ।
          गंथहँ जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प- सहाउ।।
    अर्थ -जिसके द्वारा आन्तरिक व बाहरी परिग्रह से भिन्न आत्म स्वभाव को जान लिया गया है, (वह)   श्रेष्ठ मुनि अंतरंग एवं बाहरी परिग्रह के ऊपर द्वेष और राग नहीं करता।
    50.   विसयहँ उप्परि परम- मुणि देसु वि करइ ण राउ।
          विषयहँ जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प- सहाउ।।
    अर्थ - जिसके द्वारा काम भोगों से भिन्न आत्म स्वभाव को जान लिया गया है, (वह) श्रेष्ठ मुनि काम भोग विषयक पदार्थों के ऊपर राग और द्वेष नहीं करता।
  2. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु पुनः योगी के विषय में कहते हैं कि योगी कहने, कहलवाने, स्तुति करने, निंदा करने आदि विषम भावों से परे रहकर समभाव में स्थित रहते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
    48.   भणइ भणावइ णवि थुणइ णिंदइ णाणि ण कोइ।
          सिद्धिहिँ कारणु भाउ समु जाणंतउ पर सोइ।
    अर्थ -ज्ञानी पुरुष न कुछ कहता है न कहलवाता है, न स्तुति करता है न निंदा करता है। वह सिद्धि का कारण समभाव को जानता हुआ उसी में स्नान (अवगााहन) करता है
    शब्दार्थ - भणइ- कहता है, भणावइ-कहलवाता है, णवि-न, ही, थुणइ-स्तुति करता है, णिंदइ-निन्दा करता है, णाणि-ज्ञानी, ण-न, कोइ-किसी की, सिद्धिहिँ-सिद्धि का, कारणु-कारण, भाउ-भाव, समु-सम, जाणंतउ-जानता हुआ, पर-पूरी तरह से, सोइ-स्नान करता है।
  3. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु योगी व संसारी जीव में भेद बताने के बाद योगी अर्थात ज्ञानी के विषय में क्रमश 6 दोहों में  कथन करते हैं। प्रथम दोहे में वे कहते हैं कि ज्ञानी समभाव में स्थित होने के कारण ही आत्म स्वभाव को प्राप्त करता है एवं राग से दूर रहता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
    47.   णाणि मुएप्पिणु भाउ समु कित्थु वि जाइ ण राउ।
          जेण लहेसइ णाणमउ तेण जि अप्प- सहाउ।
    अर्थ -  ज्ञानी समभाव को छोड़कर कहीं भी राग को प्राप्त नहीं होता। जिससे वह  उस (समभाव) के कारण ही ज्ञानमय आत्म स्वभाव को प्राप्त करेगा।
    शब्दार्थ - णाणि-ज्ञानी, मुएप्पिणु-छोड़कर, भाउ-भाव, समु -सम, कित्थु-कहीं, वि-भी, जाइ -प्राप्त होता,ण -नहीं, राउ-राग को, जेण-जिससे, लहेसइ -प्राप्त करेगा, णाणमउ-ज्ञानमय, तेण-उसके कारण, जि-ही, अप्प- सहाउ- आत्म स्वभाव को।
  4. Sneh Jain
    आचार्य यागीन्दु योगी व संसारी जीवों में भेद बताते हैं कि जब संसारी जीव अपने आत्मस्वरूप से विमुख होकर अचेत सो रहे होते हैं तब योगी अपने स्वरूप में सावधान होकर  जागता है और जब संसारी जीव विषय कषायरूप अवस्था में जाग रहे होते हैं उस अवस्था में योगी उदासीन अर्थात् सुप्त रहते हैं। अर्थात् योगी को आत्मस्वरूप ही गम्य है, प्रपंच गम्य नहीं है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
    46.1 जा णिसि सयलहँ देहियहँ जोग्गिउ तहिँ जग्गेइ।
        जहिँ पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेइ।।
    अर्थ -जो सब संसारी जीवों की रात है उस में साधुु जागता है और जिसमें समस्त संसार जागता है उसको रात मानकर वह सोता है। 
    शब्दार्थ - जा-जो, णिसि-रात, सयलहँ -सब,देहियहँ-संसारी जीवों की, जोग्गिउ-योगी, तहिँ-उसमें, जग्गेइ-जागता है, जहिँ -जिसमें, पुणु-और, जग्गइ-जागता है, सयलु -समस्त, जगु-जग, सा-वह (उसको) णिसि-रात, मणिवि-मानकर, सुवेइ-सोता है।
  5. Sneh Jain
    आगे के दो दोहे में आचार्य योगिन्दु पुनः समभाव में स्थित हुए जीव के लक्षण बताते हुए कहते हैं कि वह अपने शत्रुभाव को छोड़कर परम आत्मा में लीन हो जाता है और और अकेला लोक के शिखर के ऊपर चढ जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - 
    45.  अण्णु वि दोसु हवेइ तसु जो सम-भाउ करेइ।
         सत्तु वि मिल्लिवि अप्पणउ परहं णिलीणु हवेइ।
    अर्थ - जो रागद्वेष से रहित तटस्थ भाव को धारण करता है, उसके अन्य दोष भी होता है कि वह अपने शत्रु को छोड़कर परम आत्मा में अत्यन्त लीन हो जाता है।
    शब्दार्थ - अण्णु-दूसरा, वि-भी, दोसु-दोष, हवेइ-होता है, तसु-उसके, जो-जो, सम-भाउ-रागद्वेष से रहित तटस्थ भाव, करेइ-धारण करता है, सत्तु -शत्रु, वि-और, मिल्लिवि-छोड़कर, अप्पणउ-अपने, परहं -परम आत्मा में, णिलीणु-अत्यन्त विलीन, हवेइ-हो जाता है।
    46  अण्णु वि दोसु हवेइ तसु जो सम-भाउ करेइ।
        वियलु हवेविणु इक्कलउ उप्परि जगहँ चडेइ।।
    अर्थ - जो रागद्वेष से रहित तटस्थ भाव को धारण करता है,उसका अन्य दोष और होता है, वह  (सबसे) रहित होकर अकेला लोक के (शिखर) के ऊपर चढ़ जाता है।
    शब्दार्थ - अण्णु-दूसरा, वि-भी, दोसु-दोष, हवेइ-होता है, तसु-उसके, जो-जो, सम-भाउ-रागद्वेष से रहित तटस्थ भाव, करेइ-धारण करता है, वियलु -रहित, हवेविणु-होकर, इक्कलउ-अकेला, उप्परि-ऊपर जगहँ -लोक के, चडेइ-चढ़ जाता है।
  6. Sneh Jain
    यहाँ आचार्य ब्याज स्तुति अलंकार के माध्यम से कथन को प्रभावी बनाने के लिए दोष में भी गुण की स्थापना करते हुए कह रहे हैं कि राग द्वेष से रहित हुआ व्यक्ति अपने कर्मबंध को नष्ट कर देता है और अपने प्रति जगत को कठोर बना देता है। इसका दूसरा अर्थ यह भी लिया जा सकता है कि वह अपने स्वार्थी बन्धु को दूर कर देता है तथा जगत को अपने प्रति पागल (आकर्षित) कर लेता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    44.   विण्णि वि दोस हवंति तसु जो सम-भाउ करेइ।  
          बंधु जि णिहणइ अप्पणउ अणु जगु गहिलु करेइ।।
    अर्थ - जो रागद्वेष रहित तटस्थ भाव को धारण करता है, उसके दो दोष भी होते हैं। (एक) वह अपने (कर्म) बंधन को नष्ट कर देता है, (दूसरा) फिर जगत को अपने प्रति कठोर बना देता है।
    शब्दार्थ - विण्णि-दो, वि-ही, दोस-दोष, हवंति-होते हैं, तसु-उसके, जो-जो, सम-भाउ-रागद्वेष से रहित तटस्थ भाव, करेइ-धारण करता है, बंधु-बंधन को, जि-भी, णिहणइ-नष्ट कर देता है, अप्पणउ- अपने, अणु-फिर, जगु-जग को, गहिलु-कठोर, करेइ-बना देता है।
    (बन्धुओं, अब यहाँ पूर्ववत परमात्मप्रकाश से सम्बन्धित ही ब्लाँग दिया जायेगा। प्रश्नोत्तरी फेसबुक पर दी जा रही है।)
  7. Sneh Jain
    प्रश्न 33  राजा भरत के द्वारा चक्र छोड़ा जाने पर राजा बाहुबलि की मनोस्थिति कैसी थी और  उन्होंने क्या किया ?
    उत्तर 33   भरत के चक्र को देखकर भरत ने मन में विचार किया कि आज मैं भरत को धरती पर गिरा देता हूँ किन्तु पुनः विचार आया, नहीं, नहीं, राज्य के लिए अनुचित किया जाता है। भाई, बाप और पुत्र को भी मार दिया जाता है। मुझे धिक्कार है। मैं राज्य छोड़कर अचल, अनन्त सुख के स्थान मोक्ष की साधना करूँगा। तभी उन्होंने भरत को धरती का उपभोग करने के लिए कहकर संन्यास ग्रहण कर लिया।
    प्रश्न 34   राजा भरत ने ऋषभदेव के समवशरण में ऋषभदेव से क्या पूछा ?
    उत्तर 34   भरत ने ऋषभदेव से मुनि बाहुबलि के द्वारा घोर तप किये जाने पर भी उन्हें केवलज्ञान की  प्राप्ति नहीं होने का कारण पूछा।               
    प्रश्न 35  भरत के प्रश्न का ऋषभदेव ने क्या उत्तर दिया ?
    उत्तर 35  ऋषभदेव ने बताया कि आज भी बाहुबलि के मन में यह ईषत् कषाय है कि जब मैंने अपनी   धरती भरत को समर्पित कर दी है तब भी मैंने अपने पैरों से उनकी धरती क्यों चाप रखी है  ?  इसीलिए प्रव्रज्या लेने के बाद भी वे केवलज्ञान नहीं प्राप्त कर सके।
                    (क्या आज भी हमारे परिवारों में ऋषभदेव जैसे पिताजी हैं जो अपनी संतानों के प्रति अपने कत्र्तव्य का निर्वाह कर राग-द्वेष से परे हो उनकी समस्याओं का समाधान करते हैं। तो वे अवश्य देखें ऋषभदेव में  अपनी तस्वीर )
  8. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि मोक्ष अर्थात् परमशान्ति की प्राप्ति का उद्देश्य इह और परलोक दोनो से ही होना चाहिए। जिस जीव में वर्तमान जगत में शान्ति प्राप्त करने की योग्यता आ जाती है, वही जीव पर लोक मे शान्ति प्राप्त करने के योग्य हो पाता है। उनके अनुसार वर्तमान जगत में इस योग्यता का आधार है, तत्त्व और अतत्व को मन में समझना, रागद्वेष से रहित होना, तथा आत्म स्वभाव में प्रेम रखना। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 
     43.   तत्तातत्तु मुणेवि मणि जे थक्का सम-भावि।
          ते पर सुहिया इत्थु जगि जहँ रइ अप्प-सहावि।।
    अर्थ -  जो तत्व और अतत्व को मन में समझकर राग द्वेष रहित (तटस्थ) भाव में स्थित हैं (तथा)  जिनकी आत्म-स्वभाव में रति है, वे यहाँ संसार में परम सुखी हैं।
    शब्दार्थ - तत्तातत्तु - तत्व और अतत्व को, मुणेवि-जानकर, मणि-मन में, जे-जो, थक्का, सम-भावि-तटस्थ भाव में, ते -वे, पर-परम, सुहिया -सुखी, इत्थु -यहाँ, जगि-संसार में, जहँ-जिनकी,  रइ-रति,  अप्प-सहावि-आत्म स्वभाव में।
  9. Sneh Jain
    प्रश्न 27                  राजा बाहुबलि की बात का दूत क्या जवाब देकर अयोध्या लौट आया ?
    उत्तर 27               दूत ने कहा, यद्यपि यह भूमण्डल तुम्हें पिता के द्वारा दिया गया है परन्तु बिना कर
                                 (टेक्स)दिये सरसों के बराबर धरती भी तुम्हारी नहीं है और अयोध्या लौट आया।
    प्रश्न 28                  दूत ने अयोध्या में आकर राजा भरत को क्या बताया ?
    उत्तर 28               दूत ने बताया, हे देव! आपको वह तिनके के बराबर भी नहीं समझता और ना ही वह
                                 आपकी आज्ञा मानता है। वह आपसे युद्ध के लिए तैयार है।
    प्रश्न 29                  दूत की बात सुनकर राजा भरत ने क्या किया ?
    उत्तर 29               राजा भरत ने शीघ्र प्रस्थान की भेरी बजवा दी और दोनों सेनाएँ परष्पर भिड़ गयीं।
    (क्या आज भी हमारे परिवारों में राजा बाहुबलि जैसे स्वाभिमानी पुरुष या महिलाएँ हैं तो अवश्य देखें राजा बाहुबलि में अपनी तस्वीर )
  10. Sneh Jain
    प्रश्न 24                  राजा भरत ने मंत्री से राजा बाहुबलि का सिद्ध नहीं होना जानकर क्या किया ?
    उत्तर 24               राजा भरत ने राजा बाहुबलि को समझाने के लिए उनके पास दूत भेजा।
    प्रश्न 25                  दूत ने बाहुबलि के पास जाकर क्या कहा ?
    उत्तर 25               दूत ने कहा, हे राजन! आपको राजा भरत से जाकर मिलना चाहिए और जिस प्रकार दूसरे   
                               अट्ठानवे भाई उनकी सेवा कर जीते हैं, उसी प्रकार तुम भी अभिमान छोड़कर राजा भरत  की सेवा   
                               अंगीकार करो।
    प्रश्न 26                  राजा बाहुबलि ने दूत की बात का क्या जवाब दिया ?
    उत्तर 26               बाहुबलि ने कहा, एक बाप की आज्ञा और एक उनकी धरती, इसके अतिरिक्त दूसरी बात
                                 स्वीकार नहीं की जा सकती है। प्रवास करते समय पिताजी ने मुझे जो कुछ भी विभाजन
                                 करके दिया है, मैं उसी धरती का स्वामी हूँ। न मैं लेता हूँ, और न देता हूँ और न उसके  पास जाता हूँ।   
                                क्या मैं उसकी कृपा से राज्य करता हूँ ? उससे मिलने से मेरा क्या  प्रयोजन सिद्ध होगा ?
    क्या आज भी हमारे परिवारों में बाहुबलि जैसे स्वाभिमानी पुरुष या महिलाएँ हैं तो वे अवश्य देखें राजा बाहुबलि में अपनी तस्वीर।

  11. Sneh Jain
    प्रश्न    21                           ऋषभदेव के किस पुत्र को चक्रवर्ती की ऋद्धि प्राप्त हुई ?

    उत्तर     21                            राजा भरत को
    प्रश्न    22                           अयोध्या में चक्र प्रवेश नहीं करने पर राजा भरत ने क्या किया ?
    उत्तर    22                           राजा भरत क्रोध से भर उठा और उसने अपने मंत्रियों से पूछा-यश और जय का रहस्य जाननेवाले मंत्रियों! बताओ, क्या कोई ऐसा बचा                                           है जो मुझे सिद्ध नहीं हुआ  हो ?      
    प्रश्न       23                       राजा भरत की बात का मंत्रियों ने क्या जवाब दिया ?
    उत्तर     23                         मंत्रियों ने कहा, हे देव! आपको छःखण्ड धरती, नौ निधियाँ, चैदह प्रकार के रत्न आदि सब सिद्ध हो चुके हैं, किन्तु आपका छोटा भाई,                                             पोदनपुर का राजा, स्वाभिमानी बाहुबलि सिद्ध नहीं हुआ।
    (क्या आज भी हमारे परिवारों में राजा भरत जैसे यश प्राप्ति के इच्छुक पुरुष या महिलाएँ    हैं ? तो वे अवश्य देखें राजा भरत में अपनी तस्वीर।)
  12. Sneh Jain
    प्रश्न 18                  ऋषभदेव को केवलज्ञान की प्राप्ति कहाँ हुई ?
    उत्तर 18               पुरिमताल उद्यान में
    प्रश्न 19                  ऋषभदेव के समवशरण का लोगों पर क्या प्रभाव पडा़ ?
    उत्तर 19               पुरिमताल के प्रधान राजा ऋषभसेन ने संन्यास ग्रहण किया और उसके साथ चैरासी गर्वीले राजाओं ने भी संन्यास लिया।सभी वनचर भी अपने                              वैर भाव को समाप्त कर रहने लगे। ये चैरासी राजा ही ऋषभदेव के गणधर बने।
    प्रश्न 20                  राजा ऋषभ के कुल कितनी संतान थीं ?
    उत्तर 20               राजा ऋषभ के यशोवती पत्नी से भरत आदि सौ पुत्र और ब्राह्मी पुत्री तथा सुनन्दा पत्नी से बाहुबलि एवं सुन्दरी पुत्री हुईं। उस प्रकार कुल एक सौ एक                             पुत्र एवं दो पुत्रियाँ थीं।
  13. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि मोह कषाय का कारण है तथा कषाय ही राग द्वेष का कारण है। । इसलिए मोह के त्याग से ही समत्वमय प्रज्ञा की प्राप्ति संभव है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    42.   जेण कसाय हवंति मणि सो जिय मिल्लहि मोहु।
          मोह-कसाय-विवज्जियउ पर पावहि सम-बोहु।।
    अर्थ -  हे जीव! जिससे मन में कषाएँ उत्पन्न होती हैं, उस मोह को तू छोड़। मोह कषाय
         से रहित हुआ (तू) राग-द्वेष रहित समत्वमय प्रज्ञा कोे प्राप्त कर।
     शब्दार्थ - जेण-जिससे, कसाय-कषाएँ, हवंति-होती हैं, मणि-मन में, सो-उसको, जिय-हे जीव!, मिल्लहि-छोड़, मोहु- आसक्ति को, मोह-कसाय-विवज्जियउ-मोह कषाय से रहित हुआ, पर सर्वोपरि, पावहि-प्राप्त कर, सम-बोहु -समत्वमय प्रज्ञा को।
  14. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि कषाय नष्ट होने पर ही मन शान्त होता है और तब ही जीव के संयम पलता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    41.  जाँवइ णाणिउ उवसमइ तामइ संजदु होइ।
         होइ कसायहँ वसि गयउ जीव असंजदु सोइ।।।41।।
    अर्थ - जब तक ज्ञानी शांत रहता है, तब तक ही वह संयमी घटित होता है। कषायों के वश में गया हुआ वह ही जीव असंयमी हो जाता है।
    शब्दार्थ - जाँवइ -जब तक, णाणिउ-ज्ञानी, उवसमइ-शान्त रहता है, तामइ-तब तक, संजदु-संयमी, होइ-होता है, होइ-हो जाता है, कसायहँ -कषायों के, वसि-वश में, गयउ-गया हुआ, जीव-जीव, असंजदु-असंयमी, सोइ- वह, ही।
  15. Sneh Jain
    मित्रों, जिस प्रकार नमि व विनमि के विजयार्ध पर्वत पर जाकर बसने के कारण विद्याधरवंश का उद्भव हुआ उसी प्रकार घर, परिवार, समाज, नगर व देश के उद्भव व विकास के भी कुछ इसी प्रकार के कारण रहे हैं।
    प्रश्न 15                  ऋषभदेव का प्रथम आहार किसने, कहाँ और कब दिया ?
    उत्तर 15               हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस ने, हस्तिनापुर में, वैशाखशुक्ल तृतीया को दिया।
    प्रश्न 16                  राजा श्रेयांस ने ऋषभदेव को आहार में क्या दिया ?
    उत्तर 16                इक्षु रस
    प्रश्न 17                  ऋषभदेव को दिये गये आहार की तिथि, वैशाखशुक्ल तृतीया के दिन को क्या नाम दिया
                                      गया और क्यों ?
    उत्तर 17               अक्षय तृतीया, राजा श्रेयांस के दान को अक्षय दान मानने के कारण।
  16. Sneh Jain
    प्रश्न       11           नमि और विनमि कौन थे ?
    उत्तर     11           नमि और विनमि, ऋषभदेव के साले कच्छप और महाकच्छप के पुत्र थे।
    प्रश्न       12           राजा ऋषभ ने नमि और विनमि को कौन सा क्षेत्र प्रदान किया था ?
    उत्तर     12           विजयार्ध पर्वत की उत्तर और दक्षिण श्रेणी।
    प्रश्न       13           नमि व विनमि ने विजयार्ध पर्वत की उत्तर व दक्षिण श्रेणियाँ प्राप्त कर क्या किया ?
    उत्तर     13           नमि विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में तथा विनमि विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में
                                 स्थायीरूप से रहने लगे और अपने आपको विद्याधर कहने लगे। आगे इस वंश में उत्पन्न
                                 हुए सभी राजा अपने आपको विद्याधर कहन लगे और इनका वंश विद्याधरवंश के नाम से
                                 विख्यात हुआ।
    प्रश्न       14           इस प्रकार विद्याधरवंश के प्रवत्र्तक कौन हुए ?
    उत्तर     14           नमि व विनमि
                 (बन्धुओं जैन आगम में विद्याधरों के अनेक प्रसंग मिलते हैं। अब आप जान सकेंगे कि य
                  विद्याधर नमि व विनमि के वंश से ही सम्बन्धित थे।)
  17. Sneh Jain
    प्रश्न       9              नाभिराज के पुत्र ऋषभ का देवताओं ने अभिषेक कहाँ किया ?
    उत्तर     9              सुमेरुपर्वत पर
    प्रश्न       10           राजा ऋषभ के लिए वैराग्य का क्या कारण बना ?
    उत्तर     10           नृत्य करती नीलांजना का प्राण त्यागना
    प्रश्न       11           ऋषभदेव ने संन्यास कहाँ लिया ?
    उत्तर     11           प्रयाग उपवन में
  18. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि समता भाव वाले के ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र पलते हैं। समता भाव से रहित के दर्शन, ज्ञान और चरित्र में से एक भी नहीं पलता। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
    40.   दंसणु णाणु चरित्तु तसु जो सम-भाउ करेइ।
          इयरहँ एक्कु वि अत्थि णवि जिणवरु एउ भणेइ।।
    अर्थ - जो शान्त भाव को धारण करता है, उसके ही दर्शन, ज्ञान और चारित्र है।, अन्य (समभाव से रहितों) के (इन तीनों में से) एक भी नहीं है, जिनेन्ददेव इस प्रकार कहते हैं।
    शब्दार्थ - दंसण-दर्शन, णाणु -ज्ञान, चरित्तु-चारित्र, तसु -उसके, जो-जो,  सम-भाउ-राग द्वेष से रहित तटस्थ भाव को, करेइ-धारण करता है, इयरहँ-अन्य के, एक्कु-एक, वि-भी, अत्थि -है, णवि-नहीं, जिणवरु -जिनेन्द्रदेव, एउ-इस प्रकार, भणेइ-कहते हैं।।
  19. Sneh Jain
    प्रश्न  6      कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने पर प्रजा ने राजा ऋषभ से क्या कहा \

    उत्तर 6      प्रजा ने कहा] हे राजन! हम भूख की मार से मरे जा रहे हैं। इस समय

                 खान पान व जीवन जीने के क्या उपाय है \

    प्रश्न  7      प्रजा की करुण पुकार सुनकर राजा ऋषभ ने क्या कहा \

    उत्तर 7      राजा ऋषभ ने उन्हें असि] मसि, कृषि, वाणिज्य और दूसरी अन्य

                 विद्याओं की शिक्षा दी।

    प्रश्न  8      राजा ऋषभ का विवाह किससे हुआ \

    उत्तर 8      नन्दा व सुनन्दा से

                 
  20. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र धारण करना तभी संभव है जब शान्त भाव हो। अत- दर्शन, ज्ञान और चारित्र के पालन से पहले भावों को शान्त रखने का अभ्यास करना चाहिए। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    40.   दंसणु णाणु चरित्तु तसु जो सम-भाउ करेइ।
          इयरहँ एक्कु वि अत्थि णवि जिणवरु एउ भणेइ।।
    अर्थ - जो शान्त भाव को धारण करता है, उसके ही दर्शन, ज्ञान और चारित्र है।, अन्य (समभाव से रहितों) के (इन तीनों में से) एक भी नहीं है, जिनेन्ददेव इस प्रकार कहते हैं।
    शब्दार्थ - दंसणु-दर्शन, णाणु -ज्ञान, चरित्तु-चारित्र, तसु-उसके, जा-जो, सम-भाउ-राग द्वेषरूप तटस्थ भाव को, करेइ-धारण करता है, इयरहँ-अन्य के, एक्कु -एक, वि-भी, अत्थि-है, णवि -नहीं, जिणवरु-जिनवर, एउ-इस प्रकार, भणेइ-कहते हैं।
  21. Sneh Jain
    प्रश्न 3       मरुदेवी ने रात मे देखे गये स्वप्न किसको बताये ?

    उत्तर  महाराज नाभिराज को

    प्रश्न 4 स्वप्न सुनकर नाभिराज ने मरुदेवी को क्या कहा ?

    उत्तर - तुम्हारे त्रिभुवन-विभूषण पुत्र होगा

    प्रश्न 5  मरुदेवी के पुत्र का क्या नाम था ?

    उत्तर ऋषभ कुमार, आदि कुमार

  22. Sneh Jain
    आचार्य योगिन्दु स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि कर्मों की निर्जरा व संवर करने वाला योग्य पात्र वही है जो आसक्ति को छोड़कर शान्त भाव धारण करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    39.   कम्मु पुरक्किउ सो खवइ अहिणव पेसु ण देइ।
          संगु मुएविणु जो सयलु उवसम-भाउ करेइ।।
    अर्थ - वह (ही) पूर्व में कियेे कर्म को नष्ट करता है और नये (कर्म) के प्रवेश को (अपने में) स्थान नहीं देता, जो समस्त आसक्ति को छोड़कर शान्त भाव धारण करता है।
    शब्दार्थ - कम्मु-कर्म को, पुरक्किउ-पूर्व में किये गये, सो-वह, खवइ-नष्ट करता है, अहिणव -नये, पेसु-प्रवेश, ण-नहीं, देइ-देता, संगु-आसक्ति को, मुएविणु -छोड़कर, जो-जो, सयलु-समस्त, उवसम-भाउ -शान्त भाव को, करेइ-धारण करता है।
  23. Sneh Jain
    आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि संवर और निर्जरा करने का अभ्यास आत्मस्वरूप में लीन होकर ही किया जा सकता है। समस्त विकल्प इस आत्म विलीन अवस्था में ही नष्ट होते हैं। ध्यान के समय इसका अभ्यास करने के बाद व्यक्ति धीरे-धीरे प्रत्येक स्थिति में तटस्थ रहने का अभ्यासी हो जाता है और संसारी कार्य करता हुआ भी वह विकल्पों से दूर रहता है। इस प्रकार उसकी संवर व निर्जरा की अवधि धीरे-धीरे बढ़ती रहती है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 
    38.   अच्छइ जित्तिउ कालु मुणि अप्प-सरूवि णिलीणु।
          संवर-णिज्जर जाणि तुहुँ सयल-वियप्प-विहीणु।।
    अर्थ - मुनि जितने समय आत्मस्वरूप में अत्यन्त विलीन रहता है (तबतक) समस्त विकल्पों से रहित उसके संवर और निर्जरा जान।
    शब्दार्थ - अच्छइ-रहता है, जित्तिउ-जितना, कालु -समय, मुणि-मुनि, अप्प-सरूवि-आत्मस्वरूप में, णिलीणु -अत्यन्त विलीन, संवर-णिज्जर- संवर और निर्जरा, जाणि -जान, तुहुँ - तू, सयल-वियप्प-विहीणु - समस्त विकल्पों से रहित।
  24. Sneh Jain
    ब्लागस मित्रों, जयजिनेन्द्र।
    परमात्मप्रकाश पर ब्लाँग लिखने से पूर्व मैंने (पउमचरिउ) जैन रामकथा के प्रमुख पात्रों का चरित्र चित्रण किया था। उसके माध्यम से हम यह जान चुके थे कि जैन रामकथा भारतीय समाज की एक जीती जागती तस्वीर है। उसमें हमने यह देखा कि हम अपने विवेक से या फिर हम दूसरों की प्रेरणा से जो कुछ कर रहे हैं उसी का परिणाम भुगत रहे हैं। पिछले आरम्भिक ब्लाँग में पात्रों के चरित्र चित्रण के बाद मुझे लगा कि क्यों न मैं इस महत्वपूर्ण ग्रंथ को जो भारतीय समाज की जीती जागती तस्वीर है अपने ब्लाग पाठक मित्रजनों के बीच रखूँ । इससे पाठक गण के साथ मेरे ज्ञान में भी वृद्धि होगी और सबके सुझाव से जीवन के तथ्यों और अधिक स्पष्ट हो सकेंगे। इन ब्लँाग को आपके समक्ष सहज बोधगम्य व रुचिकर बनाने हेतु प्रश्नोत्तर शैली में प्रस्तुत कर रही हूँ। आज से प्रतिदिन दो ब्लाँगस लिखे जायेंगे, एक परमात्मप्रकाश से सम्बन्धित यथावत तथा दूसरा प्रश्नोत्तर शैली में पउमचरिउ पर। आज आप देखिये पउमचरिउ के ब्लाँग के पूर्व की संक्षिप्त में प्रस्तावना।
    प्रस्तावना -
    यह स्वयंभू कृत पउमचरिउ ग्रंथ अपभ्रंश भाषा में 7-8 वीं ईंस्वी में रचित है। इस अपभ्रंश ग्रंथ का अनुवाद श्री देवेन्द्रकुमार जैन इन्दोर ने किया है तथा यह ग्रंथ भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली से प्रकाशित है। यह पउमचरिउ (जैन रामकथा ग्रंथ अपभ्रंश भाषा का प्रथम महाकाव्य है। हिन्दी भाषा एवं साहित्य के जाने माने समीक्षक राहुल सांकृत्यायन ने इस महत्वपूर्ण ग्रंथ के रचनाकार स्वयंभू के बारे में कहा है कि ‘ हमारे इस युग में नहीं, हिन्दी के पाँचों युगों के जितने कवियों को हमने यहाँ संग्रहीत किया है, यह निसंकोच कहा जा सकता है कि उनमें स्वयंभू सबसे बड़े कवि हैं।वस्तुतः वे भारत के एक दर्जन अमर कवियों में एक हैं। यह ग्रंथ अपनी कथावस्तु के नामों के अनुसार पाँच भागों (काण्डों) में विभक्त है। ये पाँच भाग हैं- 1 विद्याधर काण्ड 2. अयोध्या काण्ड 3 सुन्दर काण्ड 4. युद्ध काण्ड 5. उत्तर काण्ड ।
    पउमचरिउ का प्रथम भाग विद्याधर काण्ड है। इस विद्याधर काण्ड में चार वंशों का कथन हुआ है। 1. इक्ष्वाकुवंश,, 2विद्याधर वंश, 3 राक्षसवंश, 4 वानरवंश। इसमें रामकथा के मुख्यपात्र राम का सम्बन्ध इक्ष्वाकुवंश से, रावण का राक्षसवंश से तथा हनुमान का वानरवंश से बताया गया है।  इक्ष्वाकुवंश से विद्याधरवंश का तथा विद्याधरवंश से राक्षसवंश व वानरवंश का उद्भव हुआ। प्रथम काण्ड़ के बाद विद्याधरवंश का नाम समाप्त होकर मात्र तीन वंश के ही नाम रह गये और सभी वंश के राजा विद्याधर कहे जाने लगे। यही कारण है कि सभी वंशों के उद्भव का कथन करनेवाला यह प्रथम काण्ड विद्याधर काण्ड कहा गया। इस प्रथम काण्ड को समझने के बाद ही रामकथा के माध्यम से हम भारत की जीती जागती तस्वीर का सही मायने में आकलन कर सकेंगे। हम यह कार्य बहुत ही धीरे-धीरे प्रतिदिन एक या दो प्रश्नों के माध्यम से करेंगे। कल से इसका प्रथम प्रश्न ब्लाँग प्रारम्भ किया जायेगा।
    मेरा ईमेल  है- snehtholia@yahoo.com । आप किसी भी जानकारी के लिए इस पर सम्पर्क कर सकते हैं।
  25. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि ज्ञानी (मुनि) के द्वारा समभावपूर्वक की गयी क्रिया ही उसके पुण्य और पाप के संवर का कारण होती है। देखिये इससे सम्बन्धित निम्न दोहा -
    37.   बिण्णि वि जेण सहंतु मुणि मणि सम-भाउ करेइ।
            पुण्णहँ पावहँ तेण जिय संवर-हेउ हवेइ।।
    अर्थ -  (फिर) जिससे दोनों (सुख और दुःख) को ही सहता हुआ मुनि मन में सम भाव धारण करता है। इसलिए हे जीव! वह पुण्य और पाप के संवर (कर्म निरोध) का कारण होता है।
    शब्दार्थ - बिण्णि-दोनों को, वि-ही, जेण-जिससे, सहंतु -सहता हुआ, मुणि-मुनि, मणि-मन में, सम-भाउ-समभाव को, करेइ-धारण करता है, पुण्णहँ-पुण्य, पावहँ-पाप के, तेण -इसलिए, जिय-हे जीव! संवर-हेउ-संवर का कारण, हवेइ-होता है।
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