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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव
शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)
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पूर्व कथित बात को आगे बढ़ाते हुए आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जिसने एक बार सर्व सुंदर आत्मा से आत्मसात कर लिया है उसको फिर आत्मा को छोड़कर कोई पर वस्तु प्रिय नहीं लगती। जिस प्रकार मरकतमणि की प्राप्ति के बाद काँच कौन लेना चाहेगा। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 78. अप्पा मिल्लिवि णाणमउ चित्ति ण लग्गइ अण्णु । मरगउ जेँ परयाणियउ तहुँ कच्चे ँ कउ गण्णु।। अर्थ -(ज्ञानियों के) ज्ञानमय चित्त में आत्मा को छोड़कर दूसरी (वस्तु) सम्मिलित नहीं होती। जिसके द्वारा मरकतमणि जान ली गई है, उसके लिए काँच से किस लिए प्रयोजन ? शब्दार्थ - अप्पा-आत्मा को, मिल्लिवि -छोड़कर, णाणमउ-ज्ञानमय, चित्ति-चित्त में, ण-नहीं, लग्गइ-सम्मिलित होती है, अण्णु-दूसरी, मरगउ-मरकत मणि, जेँ - जिसके द्वारा, परयाणियउ-जान ली गयी, तहुँ - उसके लिए, कच्चे ँ -काँच से, कउ-किस लिए, गण्णु-प्रयोजन।
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आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि ज्ञानी का लगाव आत्मा से ही है और आत्मा का सौन्दर्य शील और सदाचरण में ही है। अतः ज्ञानी का मन शील और सौन्दर्य को नष्ट करनेवाले विषयों में रमण नहीं करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 77. अप्पा मिल्लिवि णाणियहँ अण्णु ण सुंदरु वत्थु। तेण ण विसयहँ मणु रमइ जाणंतहँ परमत्थु।। अर्थ -ज्ञानियों के लिए आत्मा को छोड़कर दूसरी वस्तु सुंदर नहीं हैॅ, इसलिए परमार्थ (सत्य) को जानते हुए (ज्ञानियों) का मन विषयों में रमण नहीं करता है। शब्दार्थ - अप्पा-आत्मा को, मिल्लिवि -छोड़कर, णाणियहँ -ज्ञानियों के लिए, अण्णु- दूसरी, ण-नहीं, सुंदरु-सुंदर, वत्थु-वस्तु, तेण-इसलिए, ण-नहीं, विसयहँ - विषयों में, मणु -मन, रमइ -रमण करता है, जाणंतहँ - जानते हुए का, परमत्थु-परमार्थ को।
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आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि स्व-बोध होने पर दुःखों का जनक राग समाप्त हो जाता है जिस प्रकार सूर्य की किरणों के आगे अन्धकार नहीं ठहरता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 76. तं णिय-णाणु जि होइ ण वि जेण पवड्ढइ राउ। दिणयर -किरणहँ पुरउ जिय किं विलसइ तम-राउ।। अर्थ -हे जीव! वह स्व-बोध होता ही नहीे है, जिससे राग बढ़ता है। सूर्य की किरणों के आगे क्या अन्धकार का फैलाव सुशोभित होता है ? शब्दार्थ - तं - वह, णिय-णाणु- स्व बोध, जि-ही, होइ -होता है, णवि-नहीं, जेण -जिससे, पवड्ढइ-बढता है, राउ-राग, दिणयर -किरणहँ -सूर्य की किरणों के, पुरउ-आगे, जिय-हे जीव! किं -क्या, विलसइ-सुशोभित होता है तम-राउ- अंधकार का फैलाव।
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आचार्य योगीन्दु ने पूर्व में कहा कि ज्ञान के बिना शान्ति नहीं हैं। आगे इसका विस्तार करते हुए आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि स्व-बोध ही सच्चा ज्ञान है। वैसे यदि हम इसको अनुभव करें तो हम पायेंगे कि वास्तव में जिसको अपना ही बोध नहीं है उसको पर का बोध होना कैसे सम्भव है ? दूसरे शब्दों में जिसको अपने ही सुख-दुःख का एहसास नहीं हो वह दूसरों के सुख में कैसे सहयोगी हो सकता है। जब हम अपनी ही पीडा का अनुभव कर उसको दूर करने का प्रयत्न करेंगे तभी हम हम दूसरों की पीड़ा का अनुभव कर उसको दूर करने में सहयोग देंगे। धर्म के महत्वपूर्ण अंग जिस तपस्या को हम बहुत महत्व देते है वह तपस्या भी स्व बोध के अभाव में दुःखों का कारण बन जाती है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 75. जं णिय-बोहहँ बाहिरउ णाणु वि कज्जु ण तेण। दुक्खहँ कारणु जेण तउ जीवहँ होइ खणेण।। अर्थ - जो स्व-बोध से बाहर का ज्ञान हैै उस (बाहरी ज्ञान) से भी प्रयोजन नहीं है, क्योंकि (स्वबोध के अभाव से) (बाहरी) तप जीवों के लिए शीध्र दुःखों का कारण होता है। शब्दार्थ - जं - जो, णिय-बोहहँ-स्व-बोण का, बाहिरउ-बाहर का, णाणु -ज्ञान, वि -भी, कज्जु-प्रयोजन, ण-नहीं, तेण-उससे, दुक्खहँ -दुःखों का, कारणु-कारण, जेण -कयोंकि, तउ-तप, जीवहँ -जीवों के लिए, होइ -होता है, खणेण-शीघ्र।
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आचार्य योगीन्दु स्पष्टरूप से कहते है कि ज्ञान के अभाव में जीव को शान्ति मिल ही नहीं सकती । पानी के बहुत विलोडन किये हुए से हाथ चिकना नहीं होता, मन्थन तो घी का ही करना होगा। उसी प्रकार ज्ञानपूर्वक जीवन के मन्थन से ही शान्ति का मार्ग तलाश कर उस पर चलने से ही शान्ति प्राप्त की जा सकती है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 74. णाण-विहीणहँ मोक्खु-पउ जीव म कासु वि जोइ। बहुएँ सलिल-विरोलियइँ करु चोप्पडउ ण होइ।। अर्थ - हे जीव! ज्ञान रहित किसी के लिए भी मोक्ष पद (शान्ति की स्थिति) मत समझ। पानी के बहुत विलोडन किये हुए से (भी) हाथ चिकना नहीं होता। शब्दार्थ - णाण-विहीणहँ-ज्ञान से रहित, मोक्खु-पउ -मोक्ष पद, जीव- हे जीव!, म-मत, कासु - किसी के लिए, वि- भी, जोइ-समझ, बहुएँ - बहुत, सलिल-विरोलियइँ - पानी के विलोडन किये हुए से, करु-हाथ, चोप्पडउ - चिकना, ण 7 नहीं, होइ- होता।
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आचार्य योगिन्दु कहते है कि ज्ञान से ही मोक्ष अर्थात शाश्वत शान्ति की प्राप्ति संभव है। सम्यक्ज्ञान ही सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्र के बीच का सेतु है। सम्यक् ज्ञान के अभाव में न सम्यक् दर्शन की प्राप्ति संभव है और ना ही सम्यक चारित्र होना संभव है। इन तीनों के समन्वित होने से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। अतः ज्ञान ही प्रकारान्तर से मोक्ष का साधन सिद्ध होता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा- 73. देउ णिरंजणु इउँ भणइ णाणिं मुक्खु ण भंति। णाण-विहीणा जीवडा चिरु संसारु भमंति।। अर्थ - निरंजन देव यह कहते हैं कि ज्ञान से मोक्ष है, (इसमें) सन्देह नहीं (है)। ज्ञान से रहित जीव दीर्घ काल तक संसार में भ्रमण करते हैं। शब्दार्थ - देउ - देव, णिरंजणु -निरंजन, इउँ -यह, भणइ-कहते हैं, णाणिं-ज्ञान से, मुक्खु -मोक्ष, ण-नहीं, भंति-संदेह, णाण-विहीणा-ज्ञान से रहित, जीवडा-जीव, चिरु -दीर्घकाल तक, संसारु-संसार में, भमंति-भ्रमण करते हैं।
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आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि दान तप आदि शुभ भाव पूर्वक की गयी क्रियाओं से अस्थिर विषय सुख व स्वर्ग का आधिपत्य प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु जन्म मरण रहित मोक्ष पद प्राप्त करने के लिए ज्ञानपूर्वक विशु़द्ध भाव से की गयी विशुद्ध क्रिया ही आवश्यक है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 72. दाणिं लब्भइ भोउ पर इंदत्तणु वि तवेण। जम्मण-मरण-विवज्जियउ पउ लब्भइ णाणेण।। अर्थ -दान से विषय सुख और तप से इन्द्रत्व (स्वर्ग का आधिपत्य) प्राप्त किया जाता है, किन्तु ज्ञान से जन्म-मरण रहित पद (मोक्ष) प्राप्त किया जाता है। शब्दार्थ - दाणिं -दान से, लब्भइ-प्राप्त किया जाता है, भोउ-विषय सुख, पर-मात्र, इंदत्तणु-इन्द्रत्व, वि -और, तवेण-तप से, जम्मण-मरण-विवज्जियउ-जन्म-मरण से रहित, पउ-पद, लब्भइ-प्राप्त किया जाता है, णाणेण-ज्ञान से।
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अशुभ, शुभ व शुद्ध भाव का संक्षेप में कथन
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आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि शुभ भाव से व्यक्ति अच्छे कर्म करता है किन्तु उससे कर्म बंध होता है और अशुभ भाव से व्यक्ति बुरे कर्म करता है और उससे भी कर्म बंध होता है। मात्र एक शुद्ध भाव ही वह भाव है जिससे व्यक्ति कर्म बन्ध नहीं करता है। शुद्ध भाव में रत व्यक्ति समस्त कर्म करते हुए भी कर्म बन्धन से परे होता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 71. सुह-परिणामे ँ धम्मु पर असुहे ँ होइ अहम्मु। दोहि ँ वि एहि ँ विवज्जियउ सुद्धु ण बंधइ कम्मु।। अर्थ -शुभ भाव से धर्म और अशुभ से अधर्म होता है, (तथा) इन दोनों से रहित हुआ शुद्ध भाव कर्म को नहीं बांँधता है। शब्दार्थ - सुह-परिणामे ँ - शुभ परिणाम से, धम्मु-धर्म, पर -और, असुहे ँ -अशुभ से, होइ-होता है, अहम्मु-अधर्म, दोहि ँ- दोनों से, वि-ही, एहि ँ-इन, विवज्जियउ-रहित हुआ, सुद्धु-शुद्ध, ण-नहीं, बंधइ-बांधता है, कम्मु-कर्म। -
विशुद्ध भाव रहित क्रिया अर्थ हीन है
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आचार्य योगीन्दु स्पष्टरूप से कहते हैं कि हे जीव! यदि तू शान्ति चाहता है तो उसके लिए तुझे सर्वप्रथम चित्त को शुद्ध करना ही पडेगा। चित्त शुद्धि के अभाव में तू कितना ही भ्रमण कर ले और कितनी ही क्रियाएँ कर ले, शान्ति संभव नहीं है। चित्त शुद्धि से ही व्यक्ति पाप और पुण्य से परे होकर षान्ति के मार्ग को प्राप्त कर सकता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 70. जहि ँ भावइ तहि ँ जाहि जिय जं भावइ करि तं जि। केम्वइ मोक्खु ण अत्थि पर चित्तहँ सुद्धि ण जं जि।। अर्थ -हे जीव! जहाँ पर (तुझको) अच्छा लगता है वहीं जा, (और) जो अच्छा लगता है उसको ही कर, किन्तु जब चित्त की ही शुद्धि नहीं है (तो) किसी भी प्रकार मोक्ष (परमशान्ति) नहीं है। शब्दार्थ -जहि ँ-जहाँ पर, भावइ - अच्छा लगता है, तहि ँ-वहाँ पर, जाहि-जा, जिय - हे जीव!, जं - जो, भावइ - अच्छा लगता है, करि-कर, तं - उसको, जि-ही, केम्वइ- किसी तरह भी, मोक्खु-मोक्ष, ण-नहीं, अत्थि - है, पर - किन्तु, चित्तहँ - चित्त की, सुद्धि -शुद्धि, ण-नहीं, जं - जब, जि-ही । -
विशुद्ध भाव के बिना मुक्ति संभव नहीं है
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आचार्य योगीन्दु मात्र विशुद्ध भाव को ही मुक्ति का मार्ग स्वीकार करते हैं । वे कहते हैं कि विशु़द्ध भाव से विचलित हुओं के मुक्ति किसी भी तरह संभव है ही नहीं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 69. सिद्धिहि ँ केरा पंथडा भाउ विसुद्धउ एक्कु। जो तसु भावहँ मुणि चलइ सो किम होइ विमुक्क।। अर्थ -मुक्ति का मार्ग एक शुद्ध भाव (ही) है। जो मुनि उस(विशुद्ध) के भाव से विचलित हो जाता हैै वह किस प्रकार मुक्त हो सकता है। शब्दार्थ - सिद्धिहि ँ -मुक्ति का, केरा- सम्बन्धवाचक परसर्ग, पंथडा-मार्ग, भाउ-भाव, विसुद्धउ-विशुद्ध, एक्कु-एक, जो - जो, तसु- उसके, भावहँ-भाव से, मुणि-मुनि, चलइ-विचलित हो जाता है, सो-वह, किम -किस प्रकार, होइ-हो सकता है, विमुक्क-मुक्त। -
धर्म विशुद्ध भाव का ही दूसरा नाम है
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आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि धर्म का सम्बन्ध विशुद्ध भाव से है तथा विशुद्ध भावपूर्वक की गयी क्रिया ही धार्मिक क्रिया है। विशुद्ध भाव रहित की गयी बाहरी क्रियाओं का कोई मूल्य नहीं है। बन्धुओं यही है आचार्य योगीन्दु का पाप -पुण्य से परे सच्चा न्याय युक्त कथन। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 68. भाउ विसद्धउ अप्पणउ धम्मु भणेविणु लेहु। चउ-गइ-दुक्खहँ जो धरइ जीउ पडंतउ एहु।। अर्थ -अपने विशुद्ध भाव को (ही) धर्म कहकर ग्रहण करो। जो (विशुद्ध भाव), (संसार में) पड़े हुए इस जीव की चारों गतियों के दुःखों से रक्षा करता है। शब्दार्थ -भाउ -भाव को, विसद्धउ-विशुद्ध, अप्पणउ- अपने, धम्मु-धर्म, भणेविणु-कहकर, लेहु-ग्रहण करो, चउ-गइ-दुक्खहँ -चारों गतियों के दुःखों से, जो-जो, धरइ-रक्षा करता है, जीउ -जीव की, पडंतउ-पडे़ हुए, एहु-इस। -
आचार्य योगीन्दु का स्पष्ट उद्घोष है कि यदि हम शान्ति चाहते हैं तो यह बिना चित्त शुद्धि के संभव है ही नहीं। चित्त शुद्धि ही भाव शुद्धि का साधन है। जिसका चित्त शुद्ध है, वह ही संयम, शील, तप, दर्शन, ज्ञान का सच्चा अधिकारी है और वह ही कर्मों का नाश कर सकता है। चित्त की शुद्धता के बिना इनमें से कुछ भी संभव नहीं है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 67. सुद्धहँ संजमु सीलु तउ सुद्धहँ दंसणु णाणु। सुद्धहँ कम्मक्खउ हवइ सुद्धउ तेण पहाणु।। अर्थ -शुद्ध(चित्तवालों) के (ही) संयम, शील (सदाचरण) (और) तप,(है),, शुद्ध (चित्तवालों) के (ही) (सम्यक्) दर्शन (और) (सम्यक्) ज्ञान (है), शुद्ध(चित्तवालों) के (ही) कर्मों का विनाश होता है। उस कारण से विशुद्ध (चित्त) ही प्रमुख है। अर्थ - सुद्धहँ -शुद्धों के, संजमु -संयम, सीलु-शील, तउ - तप, सुद्धहँ-शुद्धों के, दंसणु-दर्शन, णाणु-ज्ञान, सुद्धहँ -शुद्धों के, कम्मक्खउ-कर्मों का विनाश, हवइ-होता है, सुद्धउ-विशुद्ध, तेण-उस कारण से, पहाणु-सर्वश्रेष्ठ
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आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जिसके मन में संयम नहीं है, वही उसके अशुभ भाव का कारण है और विशुद्धता के अभाव में स्तुति, निंदा, प्रायश्चित का कोई महत्व नहीं है। मन की विशुद्धता ही आत्मोत्थान है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 66. वंदउ णिंदउ पडिकमउ भाउ असुद्धउ जासु। पर तसु संजमु अत्थि णवि जं मण-सुद्धि ण तासु।। अर्थ -जिसके अशुभ भाव है, वह स्तुति कर,े (अपने द्वारा किये) पापों की निंदा करे, अपने पापों का प्रायश्चित करे, किन्तु उसके संयम नहीं है क्योंकि उसके मन में विशुद्धता नहीं है। शब्दार्थ - वंदउ-स्तुति करे, णिंदउ-निंदा करे, पडिकमउ-पापों का प्रायश्चित करे, भाउ-भाव, असुद्धउ -अशुद्ध, जासु-जिसके, पर-किन्तु, तसु-उसके, संजमु-संयम, अत्थि-है, णवि -नहीं, जं-क्योंकि, मण-सुद्धि-मन में विशुद्धता, ण-नहीं, तासु-उसके।
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आचार्य योगीन्दु ज्ञानी का स्वरूप बताने के बाद स्पष्टरूप से कहते हैं कि ज्ञानी वंदना, निंदा, पापों के प्रायश्चित आदि से परे रहकर मात्र शुद्ध भाव में स्थित रहता है। मात्र शुद्ध भाव में स्थित रहनेवाला ही सच्चा ज्ञानी है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 65. वंदणु णिंदणु पडिकमणु णाणिहि ँ एहु ण जुत्तु। एक्कु जि मेल्लिवि णाणमउ सुद्धउ भाउ पवित्तु।। अर्थ - मात्र एक ज्ञानमय पवित्र शुद्धभाव को छोेड़कर यह स्तुति,(आत्म) निन्दा, (अपने द्वारा किये) पापों का प्रायश्चित ज्ञानियों के लिए उचित नहीं हैं। शब्दार्थ - वंदणु-स्तुति, णिंदणु-निंदा, पडिकमणु-पापों का प्रायश्चित, णाणिहि ँ -ज्ञानियों के लिए, एहु -यह, ण-नहीं, जुत्तु-उचित, एक्कु-एक, जि-मात्र, मेल्लिवि-छोड़कर, णाणमउ-ज्ञानमय, सुद्धउ-शुद्ध, भाउ-भाव, पवित्तु – पवित्र
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आचार्य योगीन्दु का एक-एक दोहा अध्यात्म के सच्चे स्वरूप का ज्ञान कराता है। अभी तक हम समझते थे कि वंदना, अपनी निन्दा और अपने पापों का प्रायश्चित यह ही जीवन का लक्ष्य हैं। किन्तु आचार्य योगीन्दु ने इन को मात्र पुण्य कहकर इससे उच्च स्तर की अनुभूति करायी है। इस दोहे से ऐसा लगता है जैसे आचार्य योगीन्दु महाराज हम भव्यजनों के कन्धे पर हाथ रखकर यह समझा रहे हंै कि कब तक दूसरों की वन्दना करते रहोगे, ऐसे काम करो कि स्वयं ही वन्दनीय हो जाओ। फिर समझाते हैं कि ऐसा गलत काम करो ही क्यों कि अपनी निन्दा और पश्चाताप करते करते अमूल्य मानवजीवन ही समाप्त हो जाये। वे कहते हैं कि ना ऐसा स्वयं करो और ना ही ऐसा करनेवालों की अनुमोदना करो। हाँ अज्ञान अवस्था में पापों के प्रक्षालन हेतु वंदनाए प्रतिक्रमण और निन्दा आवश्यक है, किन्तु इससे आगे बढने की ओर भी हमारा लक्ष्य होना चाहिए। इससे आगे बढनेवाला ही सच्चा ज्ञानी है। देेखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 64. वंदणु णिंदणु पडिकमणु पुण्णहँ कारणु जेण। करइ करावइ अणुमणइ एक्कु वि णाणि ण तेण।। अर्थ - चूंिक स्तुति,(स्व) निन्दा, (अपने द्वारा किये) पापों का पश्चाताप पुण्य का कारण है। उस कारण से ज्ञानी (उन तीनों में से) एक भी न करता है,(न) कराता है, (न) अनुमोदना करता है। शब्दार्थ - वंदणु-स्तुति, णिंदणु-निंदा, पडिकमणु-पापों का प्रायश्चित, पुण्णहँ-पुण्य का, कारण -कारण, जेण-चूंकि, करइ, करावइ-कराता है, अणुमणइ-अनुमोदना करता है, एक्कु-एक की, वि -भी, णाणि-ज्ञानी, ण-नहीं, तेण-उस कारण से।
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आचार्य योगीन्दु का एक-एक दोहा अध्यात्म के सच्चे स्वरूप का ज्ञान कराता है। अभी तक हम समझते थे कि वंदना, अपनी निन्दा और अपने पापों का प्रायश्चित यह ही जीवन का लक्ष्य हैं। किन्तु आचार्य योगीन्दु ने इन को मात्र पुण्य कहकर इससे उच्च स्तर की अनुभूति करायी है। इस दोहे से ऐसा लगता है जैसे आचार्य योगीन्दु महाराज हम भव्यजनों के कन्धे पर हाथ रखकर यह समझा रहे हंै कि कब तक दूसरों की वन्दना करते रहोगे, ऐसे काम करो कि स्वयं ही वन्दनीय हो जाओ। फिर समझाते हैं कि ऐसा गलत काम करो ही क्यों कि अपनी निन्दा और पश्चाताप करते करते अमूल्य मानवजीवन ही समाप्त हो जाये। वे कहते हैं कि ना ऐसा स्वयं करो और ना ही ऐसा करनेवालों की अनुमोदना करो। हाँ अज्ञान अवस्था में पापों के प्रक्षालन हेतु वंदनाए प्रतिक्रमण और निन्दा आवश्यक है, किन्तु इससे आगे बढने की ओर भी हमारा लक्ष्य होना चाहिए। इससे आगे बढनेवाला ही सच्चा ज्ञानी है। देेखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 64. वंदणु णिंदणु पडिकमणु पुण्णहँ कारणु जेण। करइ करावइ अणुमणइ एक्कु वि णाणि ण तेण।। अर्थ - चूंिक स्तुति,(स्व) निन्दा, (अपने द्वारा किये) पापों का पश्चाताप पुण्य का कारण है। उस कारण से ज्ञानी (उन तीनों में से) एक भी न करता है,(न) कराता है, (न) अनुमोदना करता है। शब्दार्थ - वंदणु-स्तुति, णिंदणु-निंदा, पडिकमणु-पापों का प्रायश्चित, पुण्णहँ-पुण्य का, कारण -कारण, जेण-चूंकि, करइ, करावइ-कराता है, अणुमणइ-अनुमोदना करता है, एक्कु-एक की, वि -भी, णाणि-ज्ञानी, ण-नहीं, तेण-उस कारण से।
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आचार्य योगीन्दु कहते है कि हमारी गति का आधार हमारे कर्म ही हैं। हमने पाप और पुण्य दोनों प्रकार के कर्म किये थे, इसलिए हमने यह मनुष्य गति पायी। जब हम पाप (अशुभ) कर्म करेंगे तो हम नारकी और तिर्यंच गति में जन्म लेंगे और जब पुण्य (शुभ) कर्म करेंगे तो देव गति प्राप्त करेंगे। यदि हम पाप पुण्य की क्रियाओं से रहित होकर सम्पूर्ण कर्मों का नाश कर देंगे तो मोक्ष गति को प्राप्त होंगे। इसलिए हमारी गति हमारे अपने कर्मों के आधार पर ही सुनिश्चित है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 63. पावे ँ णारउ तिरिउ जिउ पुण्णे ँ अमरु वियाणु । मिस्से माणुस-गइ लहइ दोहि वि खइ णिव्वाणु।।63।। अर्थ - जीव पाप से नारकी (नरक में उत्पन्न प्राणी), पशु-पक्षी आदि प्राणी (तथा) पुण्य से देव और (पाप-पुण्य) दोनों के मिश्रण से मनुष्य गति (और) (पाप-पुण्य) दोनों के विनाश से मोक्ष को प्राप्त करता है। (ऐसा तू ) विशेष रूप से जान। शब्दार्थ - पावे ँ -पाप से, णारउ-नारकी, तिरिउ-पशु-पक्षी आदि प्राणी, जिउ-जीव, पुण्णे ँ -पुण्य से, अमरु-देव, वियाणु - जान, मिस्से -मिश्रण से, माणुस-गइ-मनुष्य गति, लहइ-प्राप्त करता है, दोहि- दोनों के, वि-और, खइ-विनाश से, णिव्वाणु-मोक्ष को।
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आचार्य योगीन्दु ने पाप, पुण्य और मोक्ष को कितने सहज तरीके से तीन चार गाथाओं में समझा दिया है, यह है उनकी मनोवैज्ञानिकता। जितना आश्चर्य लोगों के प्रतिकूल आचरण पर होता है उतना ही आश्चर्य हम अज्ञानियों को आचार्य योगिन्दु मुनिराज की सरलता पर होता है। सर्व प्रथम वे कहते हैं कि स्व दर्शन से ही सुख की प्राप्ति संभव है। उसके बाद वे कहते हैं स्व दर्शन रहित पुण्य भी पाप है । फिर कहते हैं कि शुभ कर्म मात्र पुण्य के कारण हैं मोक्ष के कारण नहीं है और अन्त में पाप का कथन कर अपने सम्पूर्ण मन्तव्य को स्पष्ट कर देते हैं। देखिये अन्तिम बात के कथन से सम्बन्धित आगे का दोहा - 62. देवहँ सत्थहं मुणिवरहं जो विद्देसु करेइ। णियमे ँ पाउ हवेइ तसु जे ँ संसारु भमेइ।। अर्थ - जो परमेश्वरों से, शास्त्रों से (और) मुनिवरों से वैर करता है, उसके नियम से पाप होता है, जिसके कारण (वह) संसार में भ्रमण करता है। शब्दार्थ -देवहँ-परमेश्वरों से, सत्थहं-शास्त्रों से, मुणिवरहं-मुनिवरों से, जो-जो, विद्देसु-वैर, करेइ-करता है, णियमे ँ -नियम से, पाउ-पाप, हवेइ-होता है, तसु -उसके, जे ँ -जिसके कारण, संसारु -संसार में, ,भमेइ-भ्रमण करता है।
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शुभ कर्म मात्र पुण्य के कारण हैं मोक्ष के कारण नहीं हैं
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आचार्य योगीन्दु स्पष्टरूप से कहते हैं कि मोक्ष अर्थात् मुक्ति कर्मों के क्षय से ही संभव है। परमेश्वरों की, शास्त्रों की (और) मुनिवरों की भक्ति से तो पुण्य होता है और वह भी यदि स्वदर्शन सहित नहीं हो तो आगे चलकर पाप में परिवर्तन हो जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 61. देवहं सत्थहं मुणिवरहँ भत्तिए पुण्णु हवेइ। कम्म-क्खउ पुणु होइ णवि अज्जउ संति भणेइ।। अर्थ - परमेश्वरों की, शास्त्रों की (और) मुनिवरों की भक्ति से पुण्य होता है, लेकिन कर्मों का क्षय नहीं होता। शान्ति (प्राप्त) मुनि ऐसा कहते हैं। शब्दार्थ - देवहं-परमेश्वरों की, सत्थहं-शास्त्रों की, मुणिवरहँ-मुनिवरों की, भत्तिए-भक्ति से, पुण्णु-पुण्य, हवेइ-होता है, कम्म-क्खउ-कर्मों का क्षय, पुणु-किन्तु, होइ-होता है, णवि-नहीं, अज्जउ-मुनि, संति -शान्ति, भणेइ- कहते हैं। -
?अनुकंपा - अमृत माँ जिनवाणी से - २२८
Sneh Jain commented on Abhishek Jain's blog entry in चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागरजी महराज
nissandeh aachary shanti sagarji maharaj karuna kee pratimurti they. -
आचार्य योगिन्दु एक विशुद्ध अध्यात्मकार हैं। योगी जितने जितने आध्यात्मिक होते हैं उतने उतने ही सहज होते चले जाते हैं। इस दोहे के माध्यम से आचार्य योगिन्दु की सहज अध्यात्मिकता को देखा जा सकता है। वे कहते हैं कि स्वदर्शन से रहित पुण्य पाप का कारण है, क्योंकि स्वदर्शन रहित पुण्य से वैभव तो होता है किन्तु वह वैभव अहंकार उत्पन्न करता है। उस अहंकार से मति मूढ हो जाती है जिससे सारी क्रियाएँ पापमय होती है। इसलिए आचार्य कहते हैं कि स्वदर्शन से रहित पुण्य भी किसी प्रकार कार्यकारी नहीं है। आज के इस वैभव प्रदर्शन के युग में ये गाथा सबके लिए अत्यन्त उपयोगी है। 60. पुण्णेण होइ विहवो विहवेण मओ मएण मइ-मोहो। मइ-मोहेण य पावं ता पुण्णं अम्ह मा होउ। अर्थ - पुण्य से वैभव, वैभव से अहंकार, अहंकार से मति मूढता और मतिमूढता से पाप होता है। (ऐसा) वह पुण्य हमारे न होवे। शब्दार्थ - पुण्णेण-पुण्य से, होइ-होता है, विहवो-वैभव, विहवेण-वैभव से, मओ-अहंकार, मएण-अहंकार से, मइ-मोहो-मति की मूढता, मइ-मोहेण-मति की मूढता से, य-और, पावं-पाप, ता-वह, पुण्णं -पुण्य, अम्ह -हमारे, मा-नहीं, होउ-होवे।
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स्व दर्शन से ही सुख की प्राप्ति संभव है
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आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि स्व दर्शन के साथ ही पुण्य कार्यकारी है। स्व दर्शन के अभाव में पुण्य भी दुखदायी है। 59. जे णिय-दंसण अहिमुहा सोक्खु अणंतु लहंति। तिं विणु पुण्णु करंता वि दुक्खु अणंतु सहंति।।59।। अर्थ - जो निज दर्शन के सम्मुख हैं,(वे) अनन्त सुख को प्राप्त करते हैं और उसके बिना वे पुण्य करते हुए भी अनन्त दुःख झेलते हैं। शब्दार्थ - जे-जो, णिय-दंसण अहिमुहा- निज दर्शन के सम्मुख हैं, सोक्खु-सुख को, अणंतु-अनन्त, लहंति-प्राप्त करते हैं, तिं-उसके, विणु-बिना, पुण्णु-पुण्य, करंता-करते हुए, वि-भी, दुक्खु-दुःख, अणंतु-अनन्त, सहंति-झेलते हैं। -
स्व दर्शन ही मानव जीवन की सच्ची सार्थकता है
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आचार्य योगीन्दु मानव जीवन की सार्थकता का मूल व्यक्ति के निज दर्शन में मानते हैं। वे कहते हैं कि स्व दर्शन से विमुख व्यक्ति के द्वारा की गयी पुण्य क्रियाओं का भी महत्व नहीं है जबकि स्वदर्शन पूर्वक मरण भी श्रेष्ठ है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 58. वर णिय-दंसण-अहिमुहउ मरणु वि जीव लहेसि। मा णिय-दंसण-विम्मुहउ पुण्णु वि जीव करेसि।। अर्थ - हे जीव! (तू) स्व दर्शन के सम्मुख हुआ मृत्यु को भी प्राप्त करता है (तो) अच्छा है, किन्तु निज दर्शन से विमुख हुआ पुण्य भी करता है तो (अच्छा) नहीं है। शब्दार्थ - वर- अच्छा है, णिय-दंसण-अहिमुहउ -स्व दर्शन के सम्मुख हुआ, मरणु - मृत्यु को, वि-भी, जीव-हे जीव!, लहेसि-प्राप्त करता है, मा-नहीं, णिय-दंसण-विम्मुहउ-निज दर्शन से विमुख हुआ, पुण्णु -पुण्य, वि-भी, जीव- हे जीव! करेसि-करता है। -
ज्ञानी की क्रिया पुण्य पाप से रहित मोक्षमार्गी होती है
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पूर्व के दोहे में आचार्य योगीन्दु ने उस पाप को भी सुंदर बताया जो कालान्तर में बुद्धि को मोक्ष मार्गी बना देते हैं।इस दोहे में आचार्य उन पुण्यों को भी सुंदर नहीं मानते जो जीवों को क्षणिक सुख प्रदान कर नरक गामी बनाते हैं। इस तरह ज्ञानी की क्रिया तो मात्र मोक्ष मार्गी ही होती है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 57. मं पुणु पुण्णइँ भल्लाइँ णाणिय ताइँ भणंति। जीवहँ रज्जइँ देवि लहु दुक्खइँ जाइँ जणंति।। अर्थ - किन्तु ज्ञानी उन पुण्यों को (भी) अच्छा नहीं कहते, जो जीवों के लिए राज्य देकर शीघ्र (नरकादि) दुःखों को पैदा करते हैं। शब्दार्थ - मं -नहीं, पुणु-फिर, पुण्णइँ-पुण्यों को, भल्लाइँ-अच्छा, णाणिय-ज्ञानी, ताइँ-उन, भणंति-कहते हैं जीवहँ -जीवों के लिए, रज्जइँ-राज्यों को, देवि-देकर, लहु-शीघ्र, दुक्खइँ -दुःखों को, जाइँ- जो, जणंति-पैदा करते हैं। -
?महत्वपूर्ण शंका का समाधान - अमृत माँ जिनवाणी से - ३२१
Sneh Jain commented on Abhishek Jain's blog entry in चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागरजी महराज
bahut sundar, abhishelji, ham sab log kinhee is prakaar kee bhrantiyo me hee ulghe rahte hai, jisse ham sukhdaaee fal se bgee bhee vanchit rah jaate hai. or dukhdaayee kamo ko aannand poorvak karte hai. ese samay me guru dev kee vanee hee hamare agyaan ko mitane me samarth hai.