ज्ञानी को आत्मा ही प्रिय है
आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि ज्ञानी का लगाव आत्मा से ही है और आत्मा का सौन्दर्य शील और सदाचरण में ही है। अतः ज्ञानी का मन शील और सौन्दर्य को नष्ट करनेवाले विषयों में रमण नहीं करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
77. अप्पा मिल्लिवि णाणियहँ अण्णु ण सुंदरु वत्थु।
तेण ण विसयहँ मणु रमइ जाणंतहँ परमत्थु।।
अर्थ -ज्ञानियों के लिए आत्मा को छोड़कर दूसरी वस्तु सुंदर नहीं हैॅ, इसलिए परमार्थ (सत्य) को जानते हुए (ज्ञानियों) का मन विषयों में रमण नहीं करता है।
शब्दार्थ - अप्पा-आत्मा को, मिल्लिवि -छोड़कर, णाणियहँ -ज्ञानियों के लिए, अण्णु- दूसरी, ण-नहीं, सुंदरु-सुंदर, वत्थु-वस्तु, तेण-इसलिए, ण-नहीं, विसयहँ - विषयों में, मणु -मन, रमइ -रमण करता है, जाणंतहँ - जानते हुए का, परमत्थु-परमार्थ को।
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