विशुद्ध भाव रहित क्रिया अर्थ हीन है
आचार्य योगीन्दु स्पष्टरूप से कहते हैं कि हे जीव! यदि तू शान्ति चाहता है तो उसके लिए तुझे सर्वप्रथम चित्त को शुद्ध करना ही पडेगा। चित्त शुद्धि के अभाव में तू कितना ही भ्रमण कर ले और कितनी ही क्रियाएँ कर ले, शान्ति संभव नहीं है। चित्त शुद्धि से ही व्यक्ति पाप और पुण्य से परे होकर षान्ति के मार्ग को प्राप्त कर सकता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
70. जहि ँ भावइ तहि ँ जाहि जिय जं भावइ करि तं जि।
केम्वइ मोक्खु ण अत्थि पर चित्तहँ सुद्धि ण जं जि।।
अर्थ -हे जीव! जहाँ पर (तुझको) अच्छा लगता है वहीं जा, (और) जो अच्छा लगता है उसको ही कर, किन्तु जब चित्त की ही शुद्धि नहीं है (तो) किसी भी प्रकार मोक्ष (परमशान्ति) नहीं है।
शब्दार्थ -जहि ँ-जहाँ पर, भावइ - अच्छा लगता है, तहि ँ-वहाँ पर, जाहि-जा, जिय - हे जीव!, जं - जो, भावइ - अच्छा लगता है, करि-कर, तं - उसको, जि-ही, केम्वइ- किसी तरह भी, मोक्खु-मोक्ष, ण-नहीं, अत्थि - है, पर - किन्तु, चित्तहँ - चित्त की, सुद्धि -शुद्धि, ण-नहीं, जं - जब, जि-ही ।
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