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स्व-बोध होने पर राग नहीं रहता


Sneh Jain

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आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि स्व-बोध होने पर दुःखों का जनक राग समाप्त हो जाता है जिस प्रकार सूर्य की किरणों के आगे अन्धकार नहीं ठहरता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -

76.   तं णिय-णाणु जि होइ वि जेण पवड्ढइ राउ।

     दिणयर -किरणहँ पुरउ जिय किं विलसइ तम-राउ।।

अर्थ -हे जीव! वह स्व-बोध होता ही नहीे है, जिससे राग बढ़ता है। सूर्य की किरणों के आगे क्या अन्धकार का फैलाव सुशोभित होता है ?

शब्दार्थ - तं - वह, णिय-णाणु- स्व बोध, जि-ही, होइ -होता है, णवि-नहीं, जेण -जिससे, पवड्ढइ-बढता है, राउ-राग, दिणयर -किरणहँ -सूर्य की किरणों के, पुरउ-आगे, जिय-हे जीव! किं -क्या, विलसइ-सुशोभित होता है तम-राउ- अंधकार का फैलाव।

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