विशुद्ध भावों के बिना स्तुति, स्वनिंदा एवं पापों के प्रायश्चित का कोई महत्व नहीं है
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जिसके मन में संयम नहीं है, वही उसके अशुभ भाव का कारण है और विशुद्धता के अभाव में स्तुति, निंदा, प्रायश्चित का कोई महत्व नहीं है। मन की विशुद्धता ही आत्मोत्थान है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
66. वंदउ णिंदउ पडिकमउ भाउ असुद्धउ जासु।
पर तसु संजमु अत्थि णवि जं मण-सुद्धि ण तासु।।
अर्थ -जिसके अशुभ भाव है, वह स्तुति कर,े (अपने द्वारा किये) पापों की निंदा करे, अपने पापों का प्रायश्चित करे, किन्तु उसके संयम नहीं है क्योंकि उसके मन में विशुद्धता नहीं है।
शब्दार्थ - वंदउ-स्तुति करे, णिंदउ-निंदा करे, पडिकमउ-पापों का प्रायश्चित करे, भाउ-भाव, असुद्धउ -अशुद्ध, जासु-जिसके, पर-किन्तु, तसु-उसके, संजमु-संयम, अत्थि-है, णवि -नहीं, जं-क्योंकि, मण-सुद्धि-मन में विशुद्धता, ण-नहीं, तासु-उसके।
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