धर्म विशुद्ध भाव का ही दूसरा नाम है
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि धर्म का सम्बन्ध विशुद्ध भाव से है तथा विशुद्ध भावपूर्वक की गयी क्रिया ही धार्मिक क्रिया है। विशुद्ध भाव रहित की गयी बाहरी क्रियाओं का कोई मूल्य नहीं है। बन्धुओं यही है आचार्य योगीन्दु का पाप -पुण्य से परे सच्चा न्याय युक्त कथन। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
68. भाउ विसद्धउ अप्पणउ धम्मु भणेविणु लेहु।
चउ-गइ-दुक्खहँ जो धरइ जीउ पडंतउ एहु।।
अर्थ -अपने विशुद्ध भाव को (ही) धर्म कहकर ग्रहण करो। जो (विशुद्ध भाव), (संसार में) पड़े हुए इस जीव की चारों गतियों के दुःखों से रक्षा करता है।
शब्दार्थ -भाउ -भाव को, विसद्धउ-विशुद्ध, अप्पणउ- अपने, धम्मु-धर्म, भणेविणु-कहकर, लेहु-ग्रहण करो, चउ-गइ-दुक्खहँ -चारों गतियों के दुःखों से, जो-जो, धरइ-रक्षा करता है, जीउ -जीव की, पडंतउ-पडे़ हुए, एहु-इस।
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