ज्ञानी की पहचान
आचार्य योगीन्दु ज्ञानी का स्वरूप बताने के बाद स्पष्टरूप से कहते हैं कि ज्ञानी वंदना, निंदा, पापों के प्रायश्चित आदि से परे रहकर मात्र शुद्ध भाव में स्थित रहता है। मात्र शुद्ध भाव में स्थित रहनेवाला ही सच्चा ज्ञानी है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
65. वंदणु णिंदणु पडिकमणु णाणिहि ँ एहु ण जुत्तु।
एक्कु जि मेल्लिवि णाणमउ सुद्धउ भाउ पवित्तु।।
अर्थ - मात्र एक ज्ञानमय पवित्र शुद्धभाव को छोेड़कर यह स्तुति,(आत्म) निन्दा, (अपने द्वारा किये) पापों का प्रायश्चित ज्ञानियों के लिए उचित नहीं हैं।
शब्दार्थ - वंदणु-स्तुति, णिंदणु-निंदा, पडिकमणु-पापों का प्रायश्चित, णाणिहि ँ -ज्ञानियों के लिए, एहु -यह, ण-नहीं, जुत्तु-उचित, एक्कु-एक, जि-मात्र, मेल्लिवि-छोड़कर, णाणमउ-ज्ञानमय, सुद्धउ-शुद्ध, भाउ-भाव, पवित्तु – पवित्र
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