स्व दर्शन ही मानव जीवन की सच्ची सार्थकता है
आचार्य योगीन्दु मानव जीवन की सार्थकता का मूल व्यक्ति के निज दर्शन में मानते हैं। वे कहते हैं कि स्व दर्शन से विमुख व्यक्ति के द्वारा की गयी पुण्य क्रियाओं का भी महत्व नहीं है जबकि स्वदर्शन पूर्वक मरण भी श्रेष्ठ है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
58. वर णिय-दंसण-अहिमुहउ मरणु वि जीव लहेसि।
मा णिय-दंसण-विम्मुहउ पुण्णु वि जीव करेसि।।
अर्थ - हे जीव! (तू) स्व दर्शन के सम्मुख हुआ मृत्यु को भी प्राप्त करता है (तो) अच्छा है, किन्तु निज दर्शन से विमुख हुआ पुण्य भी करता है तो (अच्छा) नहीं है।
शब्दार्थ - वर- अच्छा है, णिय-दंसण-अहिमुहउ -स्व दर्शन के सम्मुख हुआ, मरणु - मृत्यु को, वि-भी, जीव-हे जीव!, लहेसि-प्राप्त करता है, मा-नहीं, णिय-दंसण-विम्मुहउ-निज दर्शन से विमुख हुआ, पुण्णु -पुण्य, वि-भी, जीव- हे जीव! करेसि-करता है।
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