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JainSamaj.World
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चित्त की शुद्धि ही प्रमुख है


Sneh Jain

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आचार्य योगीन्दु का स्पष्ट उद्घोष है कि यदि हम शान्ति चाहते हैं तो यह बिना चित्त शुद्धि के संभव है ही नहीं। चित्त शुद्धि ही भाव शुद्धि का साधन है। जिसका चित्त शुद्ध है, वह ही संयम, शील, तप, दर्शन, ज्ञान का सच्चा अधिकारी है और वह ही कर्मों का नाश कर सकता है। चित्त की शुद्धता के बिना इनमें से कुछ भी संभव नहीं है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -

67.   सुद्धहँ संजमु सीलु तउ सुद्धहँ दंसणु णाणु।

      सुद्धहँ कम्मक्खउ हवइ सुद्धउ तेण पहाणु।।

अर्थ -शुद्ध(चित्तवालों) के (ही) संयम, शील (सदाचरण) (और) तप,(है),, शुद्ध (चित्तवालों) के (ही) (सम्यक्) दर्शन (और) (सम्यक्) ज्ञान (है), शुद्ध(चित्तवालों) के (ही) कर्मों का विनाश होता है। उस कारण से विशुद्ध (चित्त) ही प्रमुख है।

अर्थ - सुद्धहँ -शुद्धों के, संजमु -संयम, सीलु-शील, तउ - तप, सुद्धहँ-शुद्धों के, दंसणु-दर्शन, णाणु-ज्ञान, सुद्धहँ -शुद्धों के, कम्मक्खउ-कर्मों का विनाश, हवइ-होता है, सुद्धउ-विशुद्ध, तेण-उस कारण से, पहाणु-सर्वश्रेष्ठ

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