ज्ञानी की क्रिया पुण्य पाप से रहित मोक्षमार्गी होती है
पूर्व के दोहे में आचार्य योगीन्दु ने उस पाप को भी सुंदर बताया जो कालान्तर में बुद्धि को मोक्ष मार्गी बना देते हैं।इस दोहे में आचार्य उन पुण्यों को भी सुंदर नहीं मानते जो जीवों को क्षणिक सुख प्रदान कर नरक गामी बनाते हैं। इस तरह ज्ञानी की क्रिया तो मात्र मोक्ष मार्गी ही होती है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
57. मं पुणु पुण्णइँ भल्लाइँ णाणिय ताइँ भणंति।
जीवहँ रज्जइँ देवि लहु दुक्खइँ जाइँ जणंति।।
अर्थ - किन्तु ज्ञानी उन पुण्यों को (भी) अच्छा नहीं कहते, जो जीवों के लिए राज्य देकर शीघ्र (नरकादि) दुःखों को पैदा करते हैं।
शब्दार्थ - मं -नहीं, पुणु-फिर, पुण्णइँ-पुण्यों को, भल्लाइँ-अच्छा, णाणिय-ज्ञानी, ताइँ-उन, भणंति-कहते हैं जीवहँ -जीवों के लिए, रज्जइँ-राज्यों को, देवि-देकर, लहु-शीघ्र, दुक्खइँ -दुःखों को, जाइँ- जो, जणंति-पैदा करते हैं।
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