स्व दर्शन रहित पुण्य भी पाप है
आचार्य योगिन्दु एक विशुद्ध अध्यात्मकार हैं। योगी जितने जितने आध्यात्मिक होते हैं उतने उतने ही सहज होते चले जाते हैं। इस दोहे के माध्यम से आचार्य योगिन्दु की सहज अध्यात्मिकता को देखा जा सकता है। वे कहते हैं कि स्वदर्शन से रहित पुण्य पाप का कारण है, क्योंकि स्वदर्शन रहित पुण्य से वैभव तो होता है किन्तु वह वैभव अहंकार उत्पन्न करता है। उस अहंकार से मति मूढ हो जाती है जिससे सारी क्रियाएँ पापमय होती है। इसलिए आचार्य कहते हैं कि स्वदर्शन से रहित पुण्य भी किसी प्रकार कार्यकारी नहीं है। आज के इस वैभव प्रदर्शन के युग में ये गाथा सबके लिए अत्यन्त उपयोगी है।
60. पुण्णेण होइ विहवो विहवेण मओ मएण मइ-मोहो।
मइ-मोहेण य पावं ता पुण्णं अम्ह मा होउ।
अर्थ - पुण्य से वैभव, वैभव से अहंकार, अहंकार से मति मूढता और मतिमूढता से पाप होता है। (ऐसा) वह पुण्य हमारे न होवे।
शब्दार्थ - पुण्णेण-पुण्य से, होइ-होता है, विहवो-वैभव, विहवेण-वैभव से, मओ-अहंकार, मएण-अहंकार से, मइ-मोहो-मति की मूढता, मइ-मोहेण-मति की मूढता से, य-और, पावं-पाप, ता-वह, पुण्णं -पुण्य, अम्ह -हमारे, मा-नहीं, होउ-होवे।
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