शुभ कर्म से द्वेष ही पाप है
आचार्य योगीन्दु ने पाप, पुण्य और मोक्ष को कितने सहज तरीके से तीन चार गाथाओं में समझा दिया है, यह है उनकी मनोवैज्ञानिकता। जितना आश्चर्य लोगों के प्रतिकूल आचरण पर होता है उतना ही आश्चर्य हम अज्ञानियों को आचार्य योगिन्दु मुनिराज की सरलता पर होता है। सर्व प्रथम वे कहते हैं कि स्व दर्शन से ही सुख की प्राप्ति संभव है। उसके बाद वे कहते हैं स्व दर्शन रहित पुण्य भी पाप है । फिर कहते हैं कि शुभ कर्म मात्र पुण्य के कारण हैं मोक्ष के कारण नहीं है और अन्त में पाप का कथन कर अपने सम्पूर्ण मन्तव्य को स्पष्ट कर देते हैं। देखिये अन्तिम बात के कथन से सम्बन्धित आगे का दोहा -
62. देवहँ सत्थहं मुणिवरहं जो विद्देसु करेइ।
णियमे ँ पाउ हवेइ तसु जे ँ संसारु भमेइ।।
अर्थ - जो परमेश्वरों से, शास्त्रों से (और) मुनिवरों से वैर करता है, उसके नियम से पाप होता है, जिसके कारण (वह) संसार में भ्रमण करता है।
शब्दार्थ -देवहँ-परमेश्वरों से, सत्थहं-शास्त्रों से, मुणिवरहं-मुनिवरों से, जो-जो, विद्देसु-वैर, करेइ-करता है, णियमे ँ -नियम से, पाउ-पाप, हवेइ-होता है, तसु -उसके, जे ँ -जिसके कारण, संसारु -संसार में, ,भमेइ-भ्रमण करता है।
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