ज्ञानी का सच्चा स्वरूप
आचार्य योगीन्दु का एक-एक दोहा अध्यात्म के सच्चे स्वरूप का ज्ञान कराता है। अभी तक हम समझते थे कि वंदना, अपनी निन्दा और अपने पापों का प्रायश्चित यह ही जीवन का लक्ष्य हैं। किन्तु आचार्य योगीन्दु ने इन को मात्र पुण्य कहकर इससे उच्च स्तर की अनुभूति करायी है। इस दोहे से ऐसा लगता है जैसे आचार्य योगीन्दु महाराज हम भव्यजनों के कन्धे पर हाथ रखकर यह समझा रहे हंै कि कब तक दूसरों की वन्दना करते रहोगे, ऐसे काम करो कि स्वयं ही वन्दनीय हो जाओ। फिर समझाते हैं कि ऐसा गलत काम करो ही क्यों कि अपनी निन्दा और पश्चाताप करते करते अमूल्य मानवजीवन ही समाप्त हो जाये। वे कहते हैं कि ना ऐसा स्वयं करो और ना ही ऐसा करनेवालों की अनुमोदना करो। हाँ अज्ञान अवस्था में पापों के प्रक्षालन हेतु वंदनाए प्रतिक्रमण और निन्दा आवश्यक है, किन्तु इससे आगे बढने की ओर भी हमारा लक्ष्य होना चाहिए। इससे आगे बढनेवाला ही सच्चा ज्ञानी है। देेखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
64. वंदणु णिंदणु पडिकमणु पुण्णहँ कारणु जेण।
करइ करावइ अणुमणइ एक्कु वि णाणि ण तेण।।
अर्थ - चूंिक स्तुति,(स्व) निन्दा, (अपने द्वारा किये) पापों का पश्चाताप पुण्य का कारण है। उस कारण से ज्ञानी (उन तीनों में से) एक भी न करता है,(न) कराता है, (न) अनुमोदना करता है।
शब्दार्थ - वंदणु-स्तुति, णिंदणु-निंदा, पडिकमणु-पापों का प्रायश्चित, पुण्णहँ-पुण्य का, कारण -कारण, जेण-चूंकि, करइ, करावइ-कराता है, अणुमणइ-अनुमोदना करता है, एक्कु-एक की, वि -भी, णाणि-ज्ञानी, ण-नहीं, तेण-उस कारण से।
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