मोह मुनियों को कुमार्ग में लगाता है
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि मुनि भौतिक सुखों को त्यागकर श्रेष्ठ आत्मसुख की साधना में लगे हुए हैं। उनकी आत्मसुख साधना निरन्तर बढ़े इसमें श्रावकों का बहुत बड़ा सहयोग होना चाहिए। श्रावकों को मुनिराज के पास बैठकर उनसे धर्म साधना का मार्ग, गृहस्थ जीवन जीने का तरीका सीखना चाहिए और उनकी साधना में आहार, शास्त्र, औषध व अभयदान देकर सहयोगी बनना चाहिए। ना ही श्रावकों को मुनिराज के साथ राग का सम्बन्ध जोड़ना चाहिए और ना ही मुनिराज को अपने शिष्यों, सिंहासन, कमंडल व चेले चेलियों के प्रति आसक्ति रखनी चाहिए। ऐसा नहीं करने से श्रावक व साधु दोनों ही कुमार्ग में लग जाते हैं और उनका मानव जीवन व्यर्थ हो जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
89. चट्टहि ँ पट्टहि ँ कुंडयहि ँ चेल्ला-चेल्लियएहि ँ।
मोहु जणेविणु मुणिवरहँ उप्पहि पाडिय तेहि ँ।।
अर्थ - उन शिष्यों, सिंहासनो, कमंडलों (तथा) चेले-चेलियों के द्वारा मुनिवरों के लिए मोह पैदा कर (वे मुनिवर) कुमार्ग में गिराये गये हैं।
शब्दार्थ - चट्टहि ँ -शिष्यों से, पट्टहि ँ - सिंहासनों से, कुंडयहि ँ -कमंडलों से, चेल्ला-चेल्लियएहि ँ- चेले-चेलियों के द्वारा, मोहु-मोह, जणेविणु-पैदा कर, मुणिवरहँ - मुनिवरों के लिए, उप्पहि-कुमार्ग में, पाडिय-गिराये गये हैं, तेहि ँ-उन।
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