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JainSamaj.World
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अधिक विकल्प व्यक्ति के विकास में बाधक है


Sneh Jain

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आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि यदि व्यक्ति ज्ञानी होना चाहता है, अपनी परम आत्मा को पहचानना चाहता है तो उसके लिए उसे सबसे पहले अपने मन में उठने वाले व्यर्थ विकल्पों को नष्ट करना होगा, अन्यथा वह कितने ही ग्रंथों का अध्ययन कर लें सब व्यर्थ है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -

83.  सत्थु पढंतु वि होइ जडु जो हणेइ वियप्पु।

     देहि वसंतु वि णिम्मलउ णवि मण्णइ परमप्पु ।।

अर्थ -जो शास्त्र को पढ़ता हुआ भी (अपनी) विविध तरह की कल्पना (सन्देह) को नष्ट नहीं करता,, वह मूर्ख (विवेक शून्य) होता है, (तथा) (वह) देह में रहती हुई निर्मल परमआत्मा का भी विचार (विश्वास) नहीं करता।

शब्दार्थ - सत्थु-शास्त्र को, पढंतु-पढता हुआ, वि-भी, होइ-होता है, जडु-मूर्ख, जो-जो, -नहीं, हणेइ-नष्ट करता है, वियप्पु-विविध तरह की कल्पनाओं को, देहि-देह में, वसंतु -बसती हुई,,वि-भी, णिम्मलउ-निर्मल, णवि-नहीं, मण्णइ-विचार करता है, परमप्पु-परम आत्मा का।

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