Jump to content
फॉलो करें Whatsapp चैनल : बैल आईकॉन भी दबाएँ ×
JainSamaj.World
  • entries
    284
  • comments
    3
  • views
    14,347

मुनिराजों का परिग्रह रखना वमन को निगलने के समान है


Sneh Jain

179 views

आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी मुनिराजों के प्रति बहुत स्नेह रखते हैं। वे चाहते हैं कि जिस मोक्ष मार्ग की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठिन चर्या अपनायी है वह छोटी- छोटी आसक्तियों में व्यर्थ नहीं हो जावे और कहीं वे अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकें। इसीलिए वे कहते हैं कि मुनिराज ने मुनिराज अवस्था से पूर्व परिग्रह त्याग करके मुनिराज पद धारण किया है, और अब वे मुनि अवस्था ग्रहण कर पुनः परिग्रह रखते हैं तो वह वैसा ही है जैसे परिग्रहरूप वमन का त्याग करके पुनः उस त्यागे हुए परिग्रहरूप वमन को अंगीकार करे। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -

91.   जे जिण-लिंगु धरेवि मुणि इट्ठ-परिग्गह लेंति।

      छद्दि करेविणु ते जि जिय सा पुणु छद्दि गिलंति।।

अर्थ -हे जीव! जो मुनि जिन वेष को धारण करके इच्छित  परिग्रह (घन आदि को) ग्रहण करते हैं, वे  (मुनि) वमन करके उस ही वमन को फिर से निगलते हैं।

शब्दार्थ - जे -जो, जिण-लिंगु -जिनवर के वेश को, धरेवि-धारण करके, मुणि-मुनि, इट्ठ-परिग्गह-इच्ठित परिग्रह को, लेंति-ग्रहण करते हैं, छद्दि -वमन, करेविणु-करके, ते-वे, जि-ही, जिय-हे जीव! सा- उसको ही, पुणु-फिर से, छद्दि-वमन को, गिलंति-निगलते हैं।

0 Comments


Recommended Comments

There are no comments to display.

Guest
Add a comment...

×   Pasted as rich text.   Paste as plain text instead

  Only 75 emoji are allowed.

×   Your link has been automatically embedded.   Display as a link instead

×   Your previous content has been restored.   Clear editor

×   You cannot paste images directly. Upload or insert images from URL.

  • अपना अकाउंट बनाएं : लॉग इन करें

    • कमेंट करने के लिए लोग इन करें 
    • विद्यासागर.गुरु  वेबसाइट पर अकाउंट हैं तो लॉग इन विथ विद्यासागर.गुरु भी कर सकते हैं 
    • फेसबुक से भी लॉग इन किया जा सकता हैं 

     

×
×
  • Create New...