प्रयोजन अर्थात् उद्देश्य सहित कार्य ही सार्थक है
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जो व्यक्ति किसी प्रयोजन या उद्देश्य को लेकर कार्य करते हैं तो वे अपना प्रयोजन पूरा होने पर संतुष्ट हो पाते हैं जब कि प्रयोजन रहित कार्य मात्र समय गुजारना होता है। जैसे शास्त्र का अध्ययन बोध प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाये तो बोध प्राप्ति होने से उससे जो सन्तुष्टि मिलती है वही जीवन का सच्चा आनन्द है। किन्तु यदि मात्र समय गुजारने के लिए बिना बोध प्राप्ति के उद्देश्य से मात्र शास्त्रों का वाचन एक मूर्खता ही है, क्योंकि उससे सन्तुष्टि नहीं मिलती हे। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
84. बोह-णिमित्ते ँ सत्थु किल लोइ पढिज्जइ इत्थु।
तेण वि बोहु ण जासु वरु सो किं मूढु ण तत्थु।।
अर्थ - निश्चय ही बोध के प्रयोजन से यहाँ लोक में शास्त्र पढ़ा जाता है, (किन्तु) जिसके उस (शास्त्र पठन) से भी उत्तम बोध (उत्पन्न) नहीं हो (तो) क्या वह वास्तविक (वास्तव में) मूर्ख नहीं है ?
शब्दार्थ - बोह-णिमित्ते ँ- बोध के प्रयोजन से, सत्थु-शास्त्र, किल-निश्चय ही, लोइ-लोक में, पढिज्जइ -पढा जाता है, इत्थु-यहाँ, तेण-उससे, वि-भी, बोहु-बोध, ण-नहीं, जासु-जिसके, वरु-उत्तम, सो-वह, किं -क्या, मूढु-मुर्ख, ण-नहीं, तत्थु-वास्तविक।
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