रत्नत्रय का महत्व
जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति में व्यक्ति के विकास के सोपान तीन रत्न, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही है। सर्वप्रथम अपनी दृष्टि निर्मल होने पर ही प्रत्येक वस्तु का सही रूप में बोध हो पाता है और जब बोध सही होता है तब वह बोध ही चारित्र में उतर पाता है। सही चारित्र ही व्यक्ति का सर्वोत्तम विकास है। इसलिए चारित्र तक पहुँचने के लिए सर्वप्रथम व्यक्ति की दृष्टि का निर्मल होना आवश्यक है। दृष्टि के निर्मल होने के बाद चारित्र का पालन कठिन नहीं है किन्तु दृष्टि का निर्मल होना बहुत कठिन है। इसीलिए जैन धर्म व दर्शन में सम्यग्दर्शन की चर्चा पग-पग पर मिलती है। आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों रत्नों का आराधक है वह सभी जीवों को समान मानता है वह अपने से दूसरे को भिन्न नहीं मानता है। देखें इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
95. जो भत्तउ रयण-त्तयहँ तसु मुणि लक्खणु एउ।
अच्छउ कहिँ वि कुडिल्लियइ सो तसु करइ ण भेउ।।
अर्थ - जो रत्नत्रय का आराधक है, उसकी यह विशेषता है कि (जीव) किसी भी शरीर मे रहे, वह उस (जीव) का (अन्य जीव से) भेद नहीं करता है।
शब्दार्थ - जो- जो, भत्तउ-आराधक, रयण-त्तयहँ -रत्नत्रय का, तसु-उसकी, मुणि-जानो, लक्खणु-विशेषता, एउ-यह, अच्छउ-रहे, कहिँ-किसी, वि-भी, कुडिल्लियइ-शरीर में, सो-वह, तसु-उसका, करइ करता है,ण-नहीं, भेउ-भेद।
0 Comments
Recommended Comments
There are no comments to display.