मुनिराजों के द्वारा सत्य को नहीं समझा जाने का कारण
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि सामान्य व्यक्ति सत्य को समझ पाये यह बहुत मुश्किल है किन्तु उन मुनिराजों के लिए भी सत्य को समझ पाना उतना ही नामुमकिन है जो धन धान्य आदि बाह्य तथा क्रोध आदि आन्तरिक परिग्रह के कारण स्वयं को बड़ा मानते हैं। देखिये इससे सम्बन्धि आगे का दोहा - ,
93 अप्पउ मण्णइ जो जि मुणि गरुयउ गंथहि तत्थु।
सो परमत्थे जिणु भणइ णवि बुज्झइ परमत्थु।।
अर्थ - जो भी मुनि (धन धान्य आदि बाह्य तथा क्रोध आदि आन्तरिक) परिग्रह के कारण स्वयं को वास्तव (में) बड़ा मानता है, वह वास्तव में सत्य को नहीं जानता है, (ऐसा) जिनदेव कहते हैं।
शब्दार्थ - अप्पउ-स्वयं को, मण्णइ-समझता है, जो -जो, जि-भी, मुणि -मुनि, गरुयउ-बड़ा, गंथहि - आन्तरिक व बाहरी परिग्रह से, तत्थु-वास्तव, सो -वह, परमत्थे-वास्तव में, जिणु -जिनदेव, भण्-कहते हैं, णवि -नहीं, बुज्झइ-समझता है, परमत्थु-सत्य को।
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