आसक्ति रहित कर्म संवर व निर्जरा का कारण
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जो आसक्ति रहित होकर अपने कर्मों के फल को भोगता है उसके कर्मों का बंध नहीं होता तथा पूर्व में किये कर्म बन्ध भी नष्ट हो जाते है। कर्म बंध ही दु.ख का फल है। अतः आसक्ति रहित कर्म करना ही मानव की श्रेष्ठ जीवन कला है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
80. भुंजंतु वि णिय-कम्म-फलु जो तहिं राउ ण जाइ।
सो णवि बंधइ कम्मु पुणु संचिउ जेण विलाइ।।
अर्थ - जो अपने कर्मफल को भोगता हुआ भी उनमें आसक्ति उत्पन्न नहीं करता, वह फिर से कर्म को नहीं बाँधता, जिससे (उसके द्वारा ) संचित किया हुआ (कर्म भी) नष्ट हो जाता है।
शब्दार्थ - भुंजंतु- भोगता हुआ, वि-भी, णिय-कम्म-फलु-अपने कर्म फल को, जो - जो, तहिं - उनमें, राउ- आसक्ति, ण-नहीं, जाइ-उत्पन्न करता है, सो-वह, णवि-नहीं, बंधइ -बांधता है, कम्मु-कर्म को, पुणु -फिर, संचिउ-संचित किया हुआ, जेण-जिससे, विलाइ-नष्ट हो जाता है।
( बन्धुओं, आचार्य योगीन्दु द्वारा रचित इस परमात्मप्रकाश ग्रंथ के अध्ययन से आप को कैसा अनुभव हो रहा है ? आपकी प्रतिक्रिया जानकर प्रसन्नता होगी।)
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